Book Title: Yashstilak Champoo Uttara Khand
Author(s): Somdevsuri, Sundarlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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सप्तम माश्वासः
हिप- 'द्विजानिहन्त्रणा यमा पापं विशिष्यते । जोपयोगावियोषेऽपि तमा *फलपलाशिनाम् ।। ३३ ॥
स्त्रीस्वपेयत्वसामान्याहा रवारिवनोहताम् । एष वाची बदन्नेवं मद्यमातृसमागमे ॥ ३४ ॥
शुलं कुग्धं न गोमांस वस्तुविश्यमोवृशम् । विषघ्नं रत्नमाहेयं विषं ध विपने यतः ॥ ३५ ॥ अथवा । हेयं पलं पयः पेयं समे सत्यपि कारणे । 'विषदोरायुधे पत्त्रं मूलं तु मृतये मतम् ॥३६॥ अपि च शरीरावयवस्येऽपि मांसे शोषो न सपिषि। जिह्वावन्न हि बोषाप पाडे मद्यं द्विजासियु ।। ३७ ।।
विषिश्चेत्केवल शुद्ध हि सर्व निधेय्यताम् । शुद्धय चेस्केवलं वस्तु भुज्यतां श्वपचालये ॥ ३८ ॥
जैसे ब्राह्मण और पक्षी दोनों में जीव-शरीर होने से संग्रहनय की अपेक्षा अभेद है तथापि पक्षी के घात की अपेक्षा ब्राह्मण के घात करने में अधिक पाप है वैसे ही फल और मांस दोनों जीव के शरीर है किन्तु फल खानेवाले को स्तोक ( थोड़ा ) पाप लगता है, क्योंकि भश्य फलों में एकेन्द्रिय जीव ही होते हैं, और मांसभक्षण में महापाप-बन्ध है, क्योंकि मांस में दो इन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय पर्यन्त जीव-राशि सदैव रहती है ।।३।। जो बादी यन्त्र कहता है कि मंग-वगैरव धान्य और मांस दोनों ही जीव के शरीर होने में एक सरीखे भक्षणोय हैं, उसके यही पत्नी और माता दोनों में स्त्रीपन समान होने से एक मरीखीं हैं और सरा व जल दोनों में पीने लायकपन होने से एक सरोखे हैं, अतः उसे माता को स्त्री की तरह और सुरा को जल की तरह समझने की चेष्टा करनी चाहिए।
भावार्य-जब यादो मद्य व जल में पीनेलायकपन समान होने पर भी जल पीता है और मद्य का त्याग करता है और पत्नी व माता में स्त्रीपन समान होने पर भी पत्नी का उपभोग करता है और माता को नमस्कार करता है, उसी तरह उसे जीव का शरीरपन समान होने पर भी मूंग-आदि धान्य भक्षण करनी चाहिए और सदाके लिए मांस का त्याग सुरा की तरह करना चाहिए ।। ३४ ॥
गाय का दूध शुद्ध है परन्तु गो-मांस शुद्ध नहीं है । वस्तु के स्वभाव को विचित्रता ही ऐसी है। उदाहरण के रूप में सांप की फणा का मागदमनमणि तो विष को नष्ट करनेवाला है और उसका जहर तलाल मार देता है ।। ३५ ।। अथवा-यद्यपि मांस और दूध के उत्पादक कारण { घास-आदि ) एक-सरोखे हैं, तथापि मांस छोड़ने योग्य है और दूध पीने योग्य है। उदाहरण के रूप में जैसे विषवृक्ष का पत्ता और उसकी जड़ इन दोनों के उत्पादक कारण एक-से हैं तथापि विषवृक्ष का पत्ता आयु-रक्षक है और उसकी जड़ ( विष ) मृत्यु को कारण होती है ।। ३६ ॥ यद्यपि मांस और धो इन दोनों का निमित्त कारण शरीर ही है, अर्थात्-गाय के शरीर से ही मांस ब धी उत्पन्न होते हैं, तथापि मांस-भक्षण में पाप है न कि धी खाने में। जिस प्रकार ब्राह्मणादि को जिह्वा से शराब के स्पर्श करने में पाप है, परन्तु पैर में शराब के लगाने में पाप नहीं होता ॥ ३७ 11 यदि विधि ( संप्रोक्षण-कुश व मन्त्रों के जल द्वारा वस्तु को शुद्ध करना ) से ही वस्तु शुद्ध हो जाती है तो ब्राह्मणों के लिए सभी योग्य-अयोग्य वस्तु का सेवन कर लेना चाहिए, अर्थात्-फिर तो उन्हें 'अन्न भक्षणीय है और मांस त्याज्य है' ऐसा आग्रह नहीं करना चाहिए । अथवा उक्त दोष के निवारण के लिए आप कहेंगे कि समस्त वस्तु शुद्ध ही होती है, तो चापलाल के गृह पर भी भोजन कर लेना चाहिए, क्योंकि आपके कहने से चाण्डाल का गृह भी शुद्ध है ।। ३८ ॥ १. विप्रपति । २, संग्रहनयागक्षयाभेदेपि । *. 'पापं पलाशिनाम्' क० च०प० । ३. पापं विशिष्यते । ४. मातरं
दारानिव मद्यं बारीब ईहता। ५. अहे सर्पस्यद रस्तं नागदमनमणि । ६. विधवृक्षस्य पतत्र । ७. मायः निमित्तं । ८. योमासर पिपानिमित्त शरीरमेव । ९. पाद लग्न । १०. संप्रोक्षणयज्ञादिश्चेत्' सुद्धच भवति । ११. योग्यमयोग्य प। १२. अथवा विधिस्तिष्ठतु वस्तु स्वयमेव युद्ध वर्तते ।