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अष्टम आश्वासः
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सुरपतिमुवतिय'वसाममरतहस्मेश्मरीचिरम् | चरणमाक्षिरणजालं पस्यस अयताजिनो जगति ॥१०९।। वर्ग:-विविजकुञ्जरमोलिमन्दारमकरन्धस्व नि, करविसरसारधूसरपदाम्बुज,
वग्धोपरमय प्राप्तवावजयविजितमनसिज ।।११०॥ मामा-यहरवामिसगुणं जिन कविधस्साधितोषः स्तोसि विपश्चित् ।
मूगमप्तौ ननु काञ्चनर्शलं तुलयत्ति हस्तेनाचिरकालम् ।।१११॥ स्तोत्रे यत्र महामुनिपक्षाः सकलैतिहामुधिषिषिवताः । मुमुचुश्चिन्तामनवधियोषास्तत्र कयं ननु माग्योपाः ।।११२॥ तबपि ववेयं किमपि जिन स्वयि यद्यपि शक्तिर्मास्ति तथा मयि ।
यवियं भक्ति मौमस्थ व न काम कुरुले स्वस्पम् ।।११३।। चतुष्पदी-सुरपतिविरचितसंस्तव दलिताखिलभव परमधामलायोवय ।
कस्तव जन्तुर्गुणगगमघहरचरण प्रषितनुतां हतनतभय ॥११४।। जय नलिलानलिम्पाप जमतीस्ततकीतिशलतप17 अय परमधर्महम्यांवतार सोकत्रितयोखरणकरार ११५॥
प्रभु जगत में जयवन्त हों ।। १०९ ॥ जिनके चरणकमल देवेन्द्रों के मुकुटों पर स्थित हुए मन्दारजाति के कल्पवृक्षों के पुष्पों के मकरन्द ( पुष्प-रस ) के स्यन्दकारो ( बहनेवाले ) प्रसार ( फैलाव ) के सार से ईषत्पाण्डु (कुछ शुभ्र ) किये गए हैं, विद्वत्ता में सर्वोत्कृष्ट होने से जिन्होंने वाद ( शास्त्रार्थ ) में विजय श्री ( अथवा टिप्पणीकार के अभिप्राय से क्रोति लक्ष्मो ) प्राप्त की है और जो कामदेव को जीतनेवाले हैं, ऐसे हे जिनेन्द्रदेव ! ॥ ११० ।। सीमितज्ञानी जो कोई विद्वान् अपरिमित गुणवान् आपकी स्तुति करता है, वह शौघ्र हाथ से सुमेरुपर्वत को तोलता है ।। १११ ।। समस्त आगमरूपो समुद्र के अवगाहन करने में निपुण, असीम ज्ञानधारी महामुनि-समूह भी जब जिस प्रभु की स्तुति करने का विचार छोड़ चुके तब निश्चय से मुझ-सरोम्ना अल्पज्ञानी आपकी स्तुति करने का विचार किस प्रकार कर सकता है ? ।। ११२ ।। हे जिनेन्द्र ! यद्यपि मेरे में आपकी स्तुति करने की शक्ति नहीं है तथापि कुछ कहता हूँ, क्योंकि आपकी यह भक्ति मौन धारण करनेवाले मुझे यथेष्ट सुखी नहीं करती ॥ ११३ ।।
जिनको इन्द्रों ने स्तुति को, जो समस्त संसार-परिभ्रमण को नष्ट करनेवाले हैं, जिन्होंने सर्वोत्तम मोक्षस्थान के कारण प्रातिहार्य-आदि वेभव प्राप्त किया, जिनके चरण पाप-नाशक हैं एवं जो भक प्राणियों का भय नष्ट करनेवाले हैं, ऐसे हे प्रभो। कौन मानब आपके गुण-समूह का विस्तार से कथन कर सकता है॥ ११४ ।। जो समस्त
समस्त देवों को स्तसि के ग्रन्थरूप हैं और जो समस्त पथिवी के द्वारा स्तति की गई कीतिरूपी कामिनी के लिए पाय्यारूप है, ऐसे हे प्रभो ! आपकी जय हो । जो उत्कृष्ट धर्म के अवतार में प्रासादप्राय हैं और जिनको अद्वितीय शक्ति तीन लोक के उद्धार करने में समर्थ है, ऐसे हे जिन ! आपकी जय हो 11 ११५ ॥
१. कर्णानां । २. ईषद्विकसित। ३. देवप्रधान | *. 'स्यन्दकर' स०। ४. स्यन्दकारी विसरः प्रसारः, मन्दारपुष्याणां
मकरन्दसमूहासारसारण घुसर: ईपत्पाण्डकृतः । ५. पदे प्रामोदादे मशः येन । ६. शीन। ७. 'समहाः महामुनयः एव' ख.. 'पक्षाः समूहः' टि० च०। ८. कर्ता । *. 'देव निकामं कुरुते स्वस्थ' का० । ९. अपि तु न कश्चित् तब गुणसमूह प्रवितनुतां । १०. स्तुति । ११. मन्थ । १२. शध्या । १३, धर्मस्य प्रासादप्रायं। १४. 'साये मज्जास्थिराशयोः बले रेष्टे च' दि० स्व.। 'सार: स्यात्म जनि बले स्पिरांशेऽपि पृभानयम्। सारं न्याय्ये जले विस्ते सारं स्याहाच्यबरेंइति विश्वः' इति संकलनं सम्पादकस्य ।