Book Title: Yashstilak Champoo Uttara Khand
Author(s): Somdevsuri, Sundarlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 513
________________ अष्टम आश्वास: कि च । वया रिक्ता रोगिणोऽपष्यसेविनः । क्रोधनस्य तथा रिताः समाधितसंयमाः ॥४४॥ "मानवावाग्निदग्धेषु मदोषरकषायिषु । नतुमेषु प्ररोहन्ति न सच्यायोचिताङ्कुराः ॥४७५५॥ मावन्मायानिलेशोऽध्यात्माम् कृतास्पदः । न प्रयोषधियं तावद्धले चिताम्बुजाकरः १ ॥ ४७६॥ orateffeतः श्रोतसि दूरतः । गुणा बन्यास्त्यजन्तीह चण्डालसरसीमि ||४७७॥ तस्मान्मनोनितेऽस्मिन्निवं शल्यचतुष्टयम् । प्रतेोद्धर्तुमात्मज्ञः क्षेमाय शमीकेः || ४७८ || स्वर्थेषु विसन्ति स्वभावाविप्रियाणि षट् । सस्वरूपपरिज्ञानात्प्रत्यास सर्वदा ||४७९ ॥ ४७७ संसार का कारण है। नील के रंग जैसा लोभ तिर्यञ्चगति का कारण है और शरीर के मल-जैसा लोभ मनुष्यगति का कारण है एवं हल्दी के रंग सरीखा लोभ देवगति का कारण है || ४७३ || क्रोध का दुष्परिणाम जिसप्रकार अपथ्यसेवी रोगी का औषधि सेवन व्यर्थ है उसीप्रकार कोधी मानव के धर्मध्यान, श्रुताभ्यास व संयम निष्फल ( व्यर्थ ) है | ४७४ ॥ मान से हानि मानरूपी दावानल अग्नि से भस्म हुए और मदरूपी खारी मिट्टी से कपायले रस वाले मनुष्यरूपी वृक्षों से प्रशस्त कान्तिवाले नये अंकुर नहीं ॐगते । अर्थात् जैसे दावानल अग्नि से जले हुए व खारी मिट्टी से' कषायले रसवाले वृक्षों से प्रशस्त कान्तिवाले अंकुर नहीं कँगते वैसे ही घमण्डी व अहङ्कारी मानव से सद्गुण प्रकट नहीं होते ॥ ४७५ || माया से हानि जबतक जीवरूपी जलराशि में माया ( छलकपट ) रूपी रात्रि का लेशमात्र भी निवास रहता है तबतक उसका मनरूपी कमल समूह विकास लक्ष्मी को धारण नहीं करता | ४७६ ॥ लोभ से हानि जैसे पथिक लोक में गड़ी हुई हड्डियों के चिन्होंवाली चाण्डालों की सरसी ( तलैया ) दूर से छोड़ देते हैं वैसे ही प्रशस्त ज्ञानादि गुण, लोक में लोभरूपी हड्डियों के चिन्होंवाले मानवों के चित्तरूपी झरनों को दूर से छोड़ देते हैं । अर्थात् — लोभी के समस्त गुण नष्ट हो जाते हैं ।। ४७७ ।। मनुष्य-कर्तव्य अतः आत्मज्ञानी पुरुष को अपने कल्याण की प्राप्ति के लिए संयमरूपी कीलों द्वारा अपने मनरूपी गृह से इन क्रोध, मान, माया व लोभरूपी चारों शल्यों को निकालने का यत्न करना चाहिए ||४७८॥ छह इन्द्रिया (स्पर्शन, रसना, प्राण, चक्षु, श्रोत्र व मन ) स्वभाव से ही अपने-अपने विषयों में प्रवृत्त होती हैं, अतः उन विषयों के स्वरूप को जानकर सदा इन्द्रियों को उनके विषयों से पराङ्मुख करनी चाहिए । अर्थात् १२. तया चाह सोमदेवसूरिः - दुरभिनिवेशामोधो यथोक्ताग्रहणं वा मानः ।। ५ ।। कुलवलेश्वर्यरूपविद्यादिभिरात्माहंकारकरणं परप्रकर्षनिबन्धनं वा मदः ॥ ६ ॥ नीतिवाक्यामृत हमारी भाषाटोका अरिषड्वर्गसमुद्दा पु० ६१ ॥ २. कमलसमूहः । ४. अस्थि । ५ पथिकाः ।

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