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यशस्तिलकचम्यूकाव्य ध्यान सिद्धिगिरी विधाय ह मुनिः सम्यकसत्तालयः कल्पे लान्तवनान्यजायत सुरः सर्वामरामणीः । अन्ये ये च यशोमतिप्रभूतमस्तेऽपि प्रपलप्तवला: संजातास्त्रिवशेश्वराः सुतिभिः संकोत्य॑मानबियः ॥४८८॥ जयतु जगदानन्दस्यन्दी जिनोक्तिमुधारसस्तवनु जयताकामारामः४ सतो फलसंगमः। जयतु "कवितावेवी शाश्वततश्च यदाश्रया"वृत्तिमतिरियं सुते सूक्तं जगत्त्रयभूपणम् ॥४८९।। “अभिधानमिषानेऽस्मिन्यस्तिसकनानि । यशोधरमहाराजचरिते स्तान्मतिः सताम् ।।४९०।। एतामष्टसहस्रीमजस्त्रमनुपूर्वशः कृती यिमशन् । 'कविता'"रहस्यमुद्रामवाप्नुपावासमुद्रगं च यशः ॥४९१।। धीमानस्ति स देषसङ्कतिलको वेषो यशःपूर्वक:7 शिष्यस्तस्य बभूव सगुणनिषिः श्रीनेमिदेवाशयः । तस्याश्चतपःस्थितेस्निनवतेजेंसुमहावाविना शिष्योऽभूविह सोमदेव पतिपस्तस्पेष काम्यक्रमः १४९२। विद्याविनोमवनयासिसहYE LL सिससिपिरकेन' 1 श्रीसोमवेवरचितस्य यशोधरस्य सल्लोकमान्यगुणरलमहोवरस्य ॥४९३।।
श्री सुदनाचार्य ने सिद्धिगिरि (सिद्धवर कूट) पर भलीभांति धर्मध्यान किया, जिससे वे लान्तव नाम के सातवे स्वर्ग में समस्त देवों के नेता देव हुए। सुदत्ताचार्य से बतधारण करनेवाले दूसरे यशोमति कुमार-आदि, पुण्यवानों द्वारा कीर्तन की जाने वाली लक्ष्मीशाली देवेन्द्र हुए ।। ४८८ ।।
ग्रन्थकार की कामना तोन लोक के लिए यथार्थ सुख का क्षरण करनेवाला जिनागमरूपी अमृतरस जयवन्त हो। इसके बाद सज्जनों का मनोरयरूपी बन अपनी फल-प्राप्ति के साथ जयवन्त हो । पश्चात् सरस्वतो देवो अथवा कवित्व शक्ति सदा जयवन्त हो, जिसके बाश्रय में यह कवि की बुद्धि ( श्रीमत्सोमदेवसूरि को प्रतिभा ) ऐसे सुभाषित रस ( यशस्तिलकचम्पू महाकाव्य रूपी अमृत ) का प्रसव ( उत्पत्ति ) करती है, जो कि तीन लोक का आभूषण है ॥ ४८५ ॥
सुभापितों को निधिवाले इस 'यशस्तिलयाचम्पू' नामके महाकाव्य में, जिसका दूसरा नाम 'यशोधरमहाराज चरित' भी है, सज्जनों की बुद्धि प्रवृत्त हो । ४९० ।।
अष्टसहस्री नामवाले ( आठ हजार दलोक परिमाणवाले ) इस यशस्तिलक महाकाव्य को निरन्तर माचार्यपरम्परा का अनुसरण करके विचार करनेवाला विद्वान कवितारूपी स्त्रो का भोग प्राप्त करता है अथवा कविता के मूलतत्व का विश्वास प्राप्त करता है और अपनों कीर्ति को समुद्र पर्यन्स विस्तारित करता है ।।४९१।।
ग्रन्थ कर्ता की प्रशस्ति देवसंघ के आभूषण श्रीमान् 'यशोदेव' नाम के आचार्य थे, उनके शिष्य प्रशस्त सम्यग्ज्ञानादि गुणों की निधि श्रीनेमिदेव नामके आचार्य थे। आश्चर्यकारिणी तप की मर्यादापाल और तेरानवे वार महावादियों पर विजयश्री प्राप्त करनेवाले उस नेमिदेव आचार्य के शिष्य, श्रीमत् सोमदेवसूरि द्वारा, जो कि गङ्गधारा नगरी में हुए है, रचा हुआ यह 'यशस्तिलकचम्पू महाकाव्य है ।। ४९२ ॥ १. रे बाणाम्मितीरे पच्छिमभावम्मि सिद्धवरकटे। दो पक्की दहकप्पे आहूडकोडिनि बुदं बंदे ॥ २. समधितव्रताः :
३. प्रवणः सरन्। ४. अभिलापवनं । ५. सरस्वती कवित्वशाक्तिर्वा । ६. कविता। ७. कर्मतिः । ८. सुभाषितं । *. विचारयन् । ९. कविता एवं स्त्रो। १०. भोग। ११. यशोदेवः । १२. ९३ । १३. चितवीरेग 1 १४. नाम्ना लेखकोन ।