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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये आपाते सुन्धरारम्भविपाके विरसक्रियः । 'विर्ष विषयIस्ते २ सातः कुशलमात्मनि ॥४८०॥ बुश्चिन्तनं दुरालापं तुर्ष्यापारं च नाचरेत् । व्रती व्रतविशुद्धययं मनोवाकायसंश्रयम् ॥४८॥ अभङ्गानतिचाराम्मा गृहीतेषु तेषु यत् । रम कियते शश्वतद्भवव्रतपालनम् ॥४८२॥ बरामभावना नित्यं नित्यं तत्त्वविचिन्तनम् । नित्यं यत्नच कर्तव्या यमेषु नियमेषु च ॥४८३।।
वृष्टानुवाविस विषय विष्णस्य मनोमशीकारसंशा बराग्यम् । प्रत्यक्षानुमानागमानुभूतपराविषया 'संप्रमोषस्वभावा स्मृतिः तत्त्वविचिन्तनं । वायाम्यन्तरशौचतपस्वाध्यायप्रणिधानानि यमाः। अहिंसासत्यास्तेयषापर्यापरिघहा नियमाः ।
इत्युपासमाध्ययने प्रकीर्णकविषि म पट्चत्वारिंशतमः कल्पः ।
इन्द्रियों को उनके विषयों में फंसने से बचाना चाहिए ॥ ४७९ ।। जब आत्मा ऐसे इन्द्रियों के विषयों से ग्रस्त ( म्याकुल या फंसी हुई ) होती है, तो उस आत्मा को कल्याण की प्राप्ति किस प्रकार हो सकती है ? जो कि विष-सरोखे तत्काल में मनोज प्रतीत होते हैं, अर्थात्-जैसे विष भक्षणकाल में मिष्ट प्रतीत होता है वैसे ही इन्द्रियों के विषय भी तत्काल में मनोज्ञ प्रतीत होते हैं और जो फलकाल में वैसे नीरस क्रियावाले ( दुर्गति के दुःख देनेवाले ) हैं जैसे भधाण किया हुआ विष उत्तरकाल में नोररा ( घातक ) होता है ।। ४८० ॥
व्रती कर्तव्य वतो पुरुष को अपने व्रतों को विशुद्ध रखने के लिये दुष्ट मन के आधार से दूसरे का बुरा चिन्तवन नहीं करना चाहिये । वचन के आधार से असत्य, निन्दा व कलहकारक वचन नहीं बोलना चाहिये और शरीर के आश्रय से बुरी चेष्टा (हिंसा व चोरी-आदि ) नहीं करनी चाहिए ॥ ४८१ ॥
नती द्वारा जो ब्रत ग्रहण किये गये हैं, उनमें न तो अतिचार लगाना चाहिए और न व्रतों को खण्डित करना चाहिए । इसप्रकार से जो बतों की रक्षा को जाता है उसे ही बतों का पालन कहा जाता है ॥४८२|| व्रतो को सदा वैराग्य को भावना करनी चाहिए। सदा तत्वों का चिन्तवन करना चाहिए और यम ( वाह्य व आभ्यन्तर शौच-आदि ) व नियमों ( अहिंसा-आदि ) के पालन में सदा प्रयत्न करना चाहिए ।।४८३।।
वैराग्य-आदि का स्वरूप प्रत्यक्ष से देखे हुए ( राज्यादि वैभव ) व आगम में निरूपण किये हुए ( स्वर्गादि भोगों) को लालसा से रहित हुए साधु या श्रावक का मन को वश करना वैराग्य है। प्रत्यक्ष, अनुमान व आगम प्रमाण से जाने हुए पदार्थों का ऐसा स्मरण करना तत्वचिन्तन है, जो कि उल्लंघन करने के लिए अशक्य स्वभाववाला है। वाह्य व आभ्यन्तर शौच, तप, स्वाध्याय और ध्यान को यम कहते हैं और अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और परिग्रहत्याग ये नियम है।
इस प्रकार उपासकाध्ययन में प्रकीर्णकविधि नामका छियालीसवां कल्प समाप्त हुआ। १. विषा विषैरिख । २. प्रास्वादितः भनिनः। ३. दृष्टाः स्त्रममुपसन्धाः। ४. 'अनुश्रये भवमनृपाविक
श्रुतमित्यर्थः' दि. न. प'अनुभविकः आगमः' ५। ५. विधवाः स्वगांधिभिवाः । १. अनुल्लंघनीय स्वमाना।