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यशस्तिलकचन्पूकाव्ये
*अनबेक्षाप्रतिलेखनष्कर्भारम्भवमनस्काराः । आवश्यकविरतियुताश्चतुर्थभेते विनिघ्नम्ति ।।२९९।। विशुध्येतान्तरात्मायं कायक्लेशविधि विना । किमग्ने व्यवस्तीह काञ्चनामविशुद्धये ॥३०॥ हस्ते चिन्तामणिस्तस्य दु:समरवानलापवित्रं यस्य चारिदिचसं सकतिजन्मनः॥३०॥ इत्पुपासकाथ्यपने प्रोषधोपवासविधिनमिकचरवारिपात्तमः कल्पः । य: 'सकृत्सेव्यते भावः स भोगो भोजनाविकः । भूषाविपरिभोगः स्यात्पौनः पुन्येन सेवनात् ॥३०२।। परिमाणं तयोः कुर्यानि नामानिने : प्रासापांना मिचम भजेत् ॥३०३॥ यमन नियमाचेति हौस्याये वस्तुनि स्मृतो । पायजीवं यमो नमः सावधिनियमः स्मृतः ॥३०४।।
विना देखी व विना शोधी भूमि पर नल-मूत्रादि का क्षेपण करना, मृदु उपकरण (मयूर-पिच्छ) से विना शुद्ध किये हुए पूजा के उपकरण व शास्त्र-आदि का ग्रहण करना, पाप कार्य का आरम्भ करना, अशुभ मन से विचार करना और सामायिक, वन्दना, प्रतिक्रमण-आदि छह आवश्यक क्रियाओं को न करना ये कार्य प्रोषधोपवासवत के घातक हैं; अत: प्रोषधोपवास के दिन इन अतीचारों का त्याग करना चाहिए ॥२९९।। उपवासआदि द्वारा कायक्लेश किये विना आत्म-शुद्धि नहीं होती। क्या इस लोक में सुवर्ण-पापाण को शुद्धि के लिए अग्नि को छोड़कर दूसरा कोई साधन है ? अर्यात्-जैसे अग्नि में तपाने से ही सुवर्ण शुतु होता है वैसे हो वारीर को कष्ट देने से आत्मा विशद्ध होती है ॥३००|| पुण्य से जन्मवाल जिसका वित्त चरिश से पवित्र है, उसे ऐसा चिन्तामणि रत्न हस्तगत ( प्राप्त ) होता है, जो कि दुःखरूपी वृक्ष को भस्म करने के लिए दाबानल अग्नि-सरीखा है।॥३०॥ इसप्रकार उपासकाध्ययन में प्रोषधोपवासविधि नामक इकतालीसवाँ कल्प समाप्त हुआ।
भोगपरिमोग परिमाणवत जो पदार्थ एकवार हो भोमा जाता है उसे 'भोग' कहते हैं जैसे भोजन-वगैरह और जो बार-बार भोगा जाता है, उसे 'परिभोग या उपभोग' कहते हैं । जैसे आभूषण वगैरह ।। ३०२ ।। धामिक पुरुष को अपने चित्त की अधिकाधिक संग्रह करने को तृष्णा की निवृत्ति के लिए भोगापभोग वस्तुओं का परिमाण कर लेना चाहिए और जो कुछ प्राप्त है और जो सेवन-योग्य है, उन समस्त वस्तुओं का भी अपनी इच्छानुसार नियम कर लेना चाहिए, कि आज मैं इतनी भोगोपयोग वस्तुएँ भोगूंगा ।। ३०३ ॥ त्याज्य पदार्थों के त्याग के विषय
*. तथा चाह उमास्वागी-आनार्य:--'अप्रत्यवेक्षितात्र माजितोत्सर्गादागसंस्तरोपक्रमणानादरस्मृत्यनुपस्थानानि ॥ ३४ ॥'
मोलयास्त्र ७-३४१ तथा चाह समन्तभद्राचार्यः--हणविसर्गास्तरणान्यदृष्टमृष्टान्यनादरास्मरणे । यत्रोषयोपवासव्यतिलङधनपञ्चकं तदिदम् ॥११०॥ रत्न श्रा० । १. पडावश्यकहिताः । २. उपवास । ३. सुकत्या पुष्पेन जन्म यस्य । ४. एकदारं । *. सथा चाह समन्तभनापार्य:--'भुवस्त्रा परिहातच्यो भोगो भुक्त्वा पुनश्न भोक्तव्यः। उपमांगोऽशनबसनप्रमृतिपञ्चेन्दियो विषयः ।। ८३ ॥' रल श्रा०। तथा चाह पूज्यपादः-'उपभोगोयानपानगन्धमाल्यादिः, परिभोगः आच्छादनप्रावरणालङ्कारशयनासनगृहयानगहनादिः तयोः परिमाणमुपभोगपरिभोगपरिमाणम् ।'-सर्वार्थसि०७-२१॥ ५. तथा चाह समन्तभद्राचार्य-'नियमो यमपच विहिती वेषा भोगोपभोगसंहारे। नियमः परिमितकालो यावज्जीवं यमो धियते ।।८७॥'रलकर श्रा०।