Book Title: Yashstilak Champoo Uttara Khand
Author(s): Somdevsuri, Sundarlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 510
________________ यथास्तिलकचम्पूकाव्ये 'सावितः पञ्च तिर्यक्ष चत्वारि श्वध्रिनाकिनोः । गुणस्थानानि मन्यन्ते नषु म चतुर्दश ॥४६४॥ अनिहितशयस्य कायमसेशस्तपः स्मृतम् । तरच मार्गाविरोधेन गुणाय गदितं जिनः ॥४६५।। अन्तहिर्मलप्लोषा'वास्मनः शुद्धिकारणम् । शारोरं मामसं कर्म तपः प्रातस्तपोधनाः ।।४६६॥ कवानियवाना विजयो व्रतपालनम् । संयमः संयतः प्रोक्त श्रेयः धमिसुमिता ॥४६७।। आदि ) प्रत्येक के चौदह-चौदह भेद हैं, इनका स्वरूप आगमों से जानना चाहिए। भावार्थ-जीवसमास के चौदह भेद हैं-एकेन्द्रिय सूक्ष्म व वादर, दो इन्द्रिय, तेन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, सैनी पंचेन्द्रिय व असेनी पंचेन्द्रिय । ये साती पर्यातक और अपर्याप्तक के भेद से चौदह होते हैं, इसप्रकार जीवसमास के चौदह भेद हैं। इसीतरह गुणस्थान भी चौदह हैं--मिथ्यात्व, सासादन, मिश्र, अविरतसम्यक्त्व, देशविरत, प्रमत्तविरत, अप्रमत्तविरत, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसाम्पराय, उपशान्तकषाय, क्षीणकषाय, मयोगक्रेवली व अयोगकेवली । जिनमें संसारी जीव अन्वेषण किये जाते हैं, उन्हें, मार्गणास्थान कहते हैं। उनके भी चौदह न है--गि, इनार, कप, मोग. रेद, काप य, नग्न, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्य, सम्यक्त्व, संशो और आहार मार्गणा ।। ४६३ ॥ पारो गतियों में होनेवाले गुणस्थान तियंचगति में तियंञ्चों के शुरु से पांच गुणस्थान होते हैं । नरकगति के नारकियों में और देवगति के देवों में पहले के चार गुणस्थान होते हैं और मनुष्यों में सभी चौदह गुणस्थान होते हैं ।। ४६४ ॥ तप का स्वरूप अपनी शक्ति न छिपानेवाले विवेकी मानव द्वारा जो काय-बलश ( शारीरिक कष्ट किया जाता है, उसे तप कहा गया है, किन्तु वह जैनमार्ग के अनुकूल होने से हो मुणकारक होता है, यह जिनेन्द्र भगवान ने कहा है ।। ४६५ ॥ अथवा तपोनिधियों ने ऐसी सारीरिक क्रिया (उपवास-आदि) व मानसिक क्रिया (प्रायश्चित्त-आदि ) को तप कहा है, जो कि अन्तरङ्ग ( रागादि ) व बहिरङ्ग मल के सन्ताप से सन्तप्त हुई आत्मा को शुद्धि में कारण है ॥ ४६६ ।। संयम का स्वरूप कपायों का निग्रह, इन्द्रियों का जय, मन, वचन व काय का कुटिल प्रवृत्ति का त्याग तया अहिंसादि १. तमा चाह पूज्यपाद:-'गल्यनुवादेन नरकगती सर्वासु पृथियोषु आद्यानि चत्वारि गुणस्यानानि सन्ति । तिर्यमात तान्येच संग्रतायतस्थानाधिकानि सन्ति। मनुष्यगतो चतुर्दशापि सन्ति । देवगती नारकवत् ।' -सर्वार्थसिद्धि मूत्र ८ ( सत्संख्या.) १०१२ । २. तथा चाह पूज्यपादः-अनिमूहितवीर्यस्य मार्गाविरोधिकायक्लेशस्तपः' । -सर्वार्थ सिद्धि अ० ६ सूत्र २४ १० १९७ । तथा च श्रीमडियामन्दिाचार्य:-'अनिगहिवषीर्यस्य सम्यग्मार्गाविरोषतः । कायक्लेवाः समाख्यातं विश्वं शक्तितस्तपः ॥ ९ ॥ तत्दार्थश्लोक वार्तिक १० ४५६ । ३. दाहात् ।

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