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अष्टम आश्वासः
गृही यतः स्वसिद्धान्तं साष युध्येत घमंधीः । 'प्रथमः सोऽनुयोगः स्यात्पुराणचरिताश्रयः ॥४५॥ मधोमध्योचलोकेषु घसुगंतिविचारणम् । शास्त्र करणमित्याहुरनुयोगपरीक्षणम् ।।४६०।। म्मेवं स्याउनुष्ठानं तस्यायं रक्षणक्रमः । इस्थमात्मचरित्रार्थोऽनु योगश्चरणाश्रितः ।।४६१॥ जीवाजीगपरिज्ञानं धर्माधर्मायबोधनम् । अन्धमोक्षमतावेति फल प्रध्यानुयोगसः ॥४६२।। "जोरस्थान गुणस्थान मार्गणास्थानगी विपिः । चतुर्दशविषो वोध्यः स प्रत्येक प्रधागमम् ।।४६३॥
प्रथमानुयोग का स्वरूप धर्म-बुद्धि गृहस्थ जिससे अपना सिद्धान्त भलीभांति जानता है, वह प्रथमानुयोग है, जो कि पुराण के आधारवाला और चरित के आधारवाला है, अर्थात्-जिसमें चौवीस तीर्थर-आदि तिरेसठ शलाका के पूज्य महापुरुषों का चरित्र अथवा किसी एक पूज्य पुरुष का चरित्र उल्लिखित होता है ॥ ४५९ ॥
करणानुयोग का स्वरूप ___अधोलोक, मध्यलोक व ऊर्ध्वलोक में पाई जानेवाली चारों पत्तियों का विचार जिसमें किया गया हो उसको विद्वानों ने करणानुयोग कहा है । यह दूसरे अनुयोगों को परीक्षा करनेवाला है ।। ४६० ॥
चरणानुयोग का स्वरूप यह मेरा अणुनत व महायतात्मकः कर्म (आचरण) है और उसके संरक्षण व संवर्धन का यह क्रम है, अर्थात-अतीचारों के त्याग से व्रतों का संरक्षण होता है और भावनाओं से प्रत वृद्धिंगत होते हैं, इसप्रकार मात्मा के चरित्र का निरूपण जिसमें किया गया हो, वह चरणानुयोग है ।। ४६१ ।।
द्रध्यानुयोग का स्वरूप द्रव्यानुयोग से विवेकी पुरुष को जोर और अजीव द्रव्य का ज्ञान होता है, धर्म, अधर्म, बन्ध एवं मोक्षतत्य का ज्ञान होता है ।। ४६२॥
जीवसमास-आदि जानने योग्य तत्व जीवसमास ( एकेन्द्रिय-आदि ), गुणस्थान ( मिथ्यात्व-आदि ) व मार्गणास्यान । गति व इन्द्रिय१-४. सथा चाह स्वामी समन्तभद्राचार्य:--
प्रथमानुयोगमर्थात्यानं चरितं पुराणामपि पुष्पम् । बोयिसमाधिनिधानं बोधति वोधः समीचीनः ।।४३।। लोकालोकथिभक्तेयुगपरिवृतेश्चतुर्गतीनां च । आदर्शमिन तथामतिरबति करणानुयोगं च ।।४४।। गृहमेघ्यनगाराणां चारित्रोयत्तिवृद्धिरक्षाङ्गम् । चरणानुयोगसमयं सम्परशानं विजानानि ॥४५॥ जोबाजीवसुतत्व पुण्यापुण्ये च बन्धमोनी च । द्रव्यानुमागदीपः श्रुतविशलोकभातनुते ।।४६।। रत्नकरण्ड । ५. वादरसुहमहन्दिन बितिचरिन्द्रिय असण्णिसण्णीय । पत्ताऽपज्जत्ता भूदा इदि चदसा होति । अर्थात्-- एकेन्द्रियाः सूक्ष्मवादरभेदेन द्विविधाः, विकलेन्द्रिशास्त्रयः, पंचेन्द्रियाः संजिनोमिनपच । एते सप्त पर्याप्ततरभदेन चतुर्दशजीवस्थानानि भवन्ति । ६. मिथ्यादृष्टि, सासादन, मिथ, असंयतसम्यग्दृष्टिः, देशविरत, प्रमत्तविरत, अप्रमत्तविरत, अपुर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, मुश्मसाम्पराय, उपशान्तकपाय, क्षीणकषाय, सयोगकेवलो व अयोगकेवली, इति चतुदर्श गुणस्थानानि भवन्ति । ७. गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कपाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेपया, भग्मत्व, सम्यक्त्व, संझि, आहारक भेदेन चतुर्दश मागंणास्थानानि भवन्ति ।