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यशस्तिलक चम्पूकाव्ये
विनयपद्मस्तचापलय जितः । अष्टदोषविनिर्मुकमषीतां गुरुसं नियो । ४५७॥ अनुयोगगुणस्थान मानणास्थानकर्मसु । अध्यात्मतत्त्व विद्यायाः पाठः स्वाध्याय उच्यते ॥ ४५८ ॥
शिष्य-कर्तव्य
अपने कल्याण के इच्छुक शिष्य को बाह्य व आभ्यन्तर शुद्धि से युक्त होकर शारीरिक चञ्चलता छोड़ते हुए विनयपूर्वक गुरु के समीप अष्ट दोषों ( अकाल, अविनय, अनवग्रह, अबहुमान, निह्नव, अव्यञ्जन, अर्थविकल और अर्थव्यञ्जनविकल ) को टालकर आगम का अध्ययन करना चाहिए ।
भावार्थ -- ज्ञान की आराधना के आठ दोष होते हैं। अकाल व अविनय आादि । अकाल (सूर्यग्रहण- आदि में पढ़ना ), अविनय ( विनयपूर्वक अध्ययन न करता ), अनवग्रह ( पढ़े हुए आगम के विषय को अवधारण न करना ), अबहुमान ( गुरु का आदर न करना ), निह्नव ( जिनसे पढ़ा है, उनका नाम छिपाना ), अव्यञ्जन ( शुद्ध उच्चारण न करना, अक्षरादिक को छोड़ जाना ), अर्थविकल ( शास्त्र का अर्थ ठीक न करना ), और अर्थव्यञ्जन विकल ( न उच्चारण ठीक करना और न अर्थ ठीक करना } 1 साधु शिष्य को आचार्य उपाध्याय परमेड़ी के पास इन आठ दोषों की टाला आगम का अध्ययन व मनन आदि करना चाहिए 1
इसी प्रकार गुरु के पादमूल में श्रुताभ्यास करनेवाले मञ्जन शिष्य को विनयशील होना चाहिए । नीतिकार आचार्यश्री ने विनय के विषय में कहा है- प्रतविद्यावयोधिकेषु नोचैराचरणं विनयः || ६ || पुण्यावासिः शास्त्ररहस्यपरिज्ञानं सत्पुरुपाधिगम्यत्वं च विनयफलम् || ७ || - नीतिवाक्यामृत पुरोहितसमुद्देश पृ० २११-२१२ ।' अर्थात् बत पालन - अहिंसा, सत्य व अचौर्य आदि सदाचार में प्रवृत्ति, शास्त्राध्ययन व आयु में बड़े पुरुषों के साथ नमस्कारादि नम्रता का वर्ताव करना विनय गुण है । सारांश यह है कि बती, विद्वान व वयोवृद्ध माता-पिता आदि पुरुष, जो कि क्रमशः सदाचार प्रवृत्ति, शास्त्राध्ययन व हित चिन्तवनआदि सद्गुणों से विभूषित होने से श्रेष्ठ हैं, उनकी विनय करना विनयगुण है। क्योंकि व्रती महापुरुषों की विनय से पुण्यप्राप्ति, विद्वानों को विनय से शास्त्रों का वास्तविक स्वरूपज्ञान एवं माता-पिता आदि हितैषियों की विनय से शिष्ट पुरुषों के द्वारा सन्मान प्राप्त होता है। इसी प्रकार fविष्य वर्तव्य का निर्देश करते हुए आचार्यश्री ने कहा है- 'अध्ययनका व्यासङ्गं परिवमन्यमनस्कतां च न भजेत् ।। १८ ।। -- नीतिवाक्यामृत पुरी० पू० २१३ । अर्थात् — शिष्य को विद्याध्ययन करने के सिवाय दूसरा कार्य, शारीरिक व मानसिक चपळता तथा चित्तप्रवृत्ति को अन्यत्र ले जाना ये कार्य नहीं करना चाहिए, क्योंकि ऐसा करनेवाला शिष्य मूर्ख रह जाता है ।। ४५७ ।।
स्वाध्याय का स्त्ररूप
चार अनुयोगों (प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग व द्रव्यानुयोग ) के यास्त्र तथा गुणस्थान ( मिथ्यात्व आदि) और मागंगास्थान ( गति व इन्द्रिय-आदि चौदह मार्गणास्थान ) के निरूपक शास्त्रों का एवं अध्यात्मतत्वविद्या का यथाविधि पढ़ना स्वध्याय है | || ४५८ ॥
९. शरीर । *. १. अकाल, २. अविनय, ३ अनवग्रह, ४ अवमान, ५. निह्नब, ६ अव्यञ्जन ७. अविकल, ८. अविकल इमष्टो दोषाः' टि० न० । 'अकाळाध्ययनावि' दि० घ० ।