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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये
आराध्य रत्नत्रयमित्यमर्थी समर्पितारमा गणिने यथावत् । समाधिभावेन कृतात्मकार्यः कृती जगन्मान्यपवप्रभुः स्यात् ॥४४७॥ इत्युपातकाध्ययने सल्लेखनाविधिर्नाम पञ्चचत्वारिंशः कल्पः । अन्य प्रकीर्णकम् ।
विप्रकोणवाक्यानामुदकं प्रकीर्णकम् । उक्तानुक्तामृतस्यन्दविन्दु बन कोषिः ॥ ४४८ ||
अदुर्जनत्वं नियो विवेकः परीक्षणं तस्यविनिषधयश्च ।
एते गुणाः पा भवन्ति यस्य स आत्मवान्य कथापरः स्यात् ||४४९ ॥
असूयकर विचारो कुराः सूक्तविमानना छ । पुंसाममी पन्च भवन्ति दोषास्तस्थावबोधप्रतिषमाय ॥१४५० ।। पुंसो यथा संशयिताशयस्य दृष्टा न काचित्सफला प्रबृत्तिः । स्वरूपेऽपिवस्तथा भ काचिसफला प्रवृतिः ॥ ४५१ ॥
स्मरण करना और आगामी भोगों की इच्छा करना || ४४६ ।। इसप्रकार रत्नत्रय को आराधना करके आचार्य के अधीन होकर उनकी आज्ञा के अनुसार चलनेवाला समाधिमरण का इच्छुक, जिसने यथाविधि धर्मध्यान परिणति से समाधिमरण किया है, पुण्यात्मा पुरुष जगत्पूज्य तोर्थङ्करपद का स्वामी हो जाता है ॥ ४४७ ॥ इसप्रकार श्रीमत्सोमदेवसूरि के उपासकाध्ययन में सल्लेखनाविधि नामक पैंतालीसवाँ कल्प समाप्त हुआ ।
[ अब कुछ सुभाषितों का कथन करते हैं-]
उपदिष्ट व अनुपदिष्ट सुभाषितरूपी अमृत से क्षरण करनेवालों बिन्दुओं के आस्वादन करने में चतुर विद्वानों ने शास्त्रों में विस्तृत हुए सार्थक सुभाषित वचनों के कथन करने को प्रकीर्णक कहा है।
भावार्थ- नीतिकार प्रस्तुत आचार्यश्री ने कहा है कि 'जो समुद्र सरीखे विस्तृत सुभाषितरूपी रत्नों की रचना का स्थान है, उसे प्रकीर्णक कहते है ।' अर्थात् जिसप्रकार समुद्र में फैली हुई प्रचुर रत्नराशि वर्तमान होती है उसीप्रकार प्रकीर्णक काव्यरूपी समुद्र में भी फैली हुई सुभाषित काव्यरूपी रत्न राशि पाई जाती है ॥ ४४८ ॥
धर्म कथा करने का पात्र
वही विशिष्ट आत्मा धर्मोपदेश देने में तत्पर होता है, जिसमें ये पांच गुण वर्तमान हूं - सज्जनता, विनय, सद्बुद्धि परीक्षा और मोक्षोपयोगी तत्वों का निश्चय ।। ४४६ ।। तत्वज्ञान में बाधक दोष
मानवों के निम्नप्रकार पाँच दोष तत्वज्ञान में बाधक हैं-दूसरे के गुणों में मात्सर्य करना, दुष्टता, हिताहित का विचार न होना, दुराग्रह ( ह्ठ ग्रहण ) और हितकारक उपदेश का अनादर करना ।। ४५० ।। संशयालु की असफलता
जैसे लौकिक कार्यो' ( व्यापार आदि ) में संदिग्ध अभिप्रायवाले मानव को कोई भी लौकिक प्रवृत्ति सफल नहीं देखी गई उसी प्रकार धर्म के स्वरूप में संदिग्ध बुद्धिवाले मानव को कोई भी धार्मिक प्रवृत्ति सफल नहीं होती ।
१. विक्षिप्ताना पूर्वोक्तानां २ तथा च सोमदेवसूदिः - 'समुद्र इव प्रकीर्णकयुक्तरस्नविन्यासनिबन्धनं प्रकीर्णकम् नीतिवाक्यामृत ( मा० टी० समेत ) ५० ४११