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यशस्तिलकबम्पुकाव्ये कर्णान्तकेशपाशाहविर्बोिधितोऽपि यदि जरा । स्वस्थ हितवी न भवति तं किं मृत्युनं संप्रसते ।।४३८।। उपवासादिभिरने कषायो बोधिमाश्नया । तसरलेलमकर्मा प्राथाय 'यतेत गणमध्ये ॥४३९॥ धमनियमस्वाध्यायास्तपासि देवानाविधिवनिम् । एतसय मिष्फलमवसाने चन्मनो मलिनम ||४४०॥ वादशवर्षाणि नृपः शिशितास्त्रो रणेषु यदि मुह्येत् । कि स्यात्तस्पास्वविधैर्यषा तथान्ते यतेः पुराचरितम् ॥४४॥ "स्नेहं विहाय बन्धु मोहं विमवेषु कलाप्रसामहिते । गणिनि च निबंध निखिलं दुरोहितं तदनु भजतु विषिमुचितम् ।।४४२।।
पकड़कर समझाये जाने पर भी वृद्ध पुरुप यदि प्रात्मकल्याण का इच्छुक नहीं होता तो क्या उसे मृत्यु अपने मुख का कोर नहीं बनाती ?
भावार्थ-वृद्धावस्था के बाद मृत्यु के मुख में प्रविष्ट होना निश्चित है; अतः वृद्ध को आत्मकल्याण में ही प्रवृत्त होना श्रेयस्कर है, न कि जीवन की लालसा रखना ॥ ४३८॥
ममाधिमरण की विधि एसे साघु या श्रावक को, जिसने उपवास-आदि द्वारा अपना शरीर कृश (क्षीण ) किया है और रत्नत्रय की भावना द्वारा कषाय रूप दोष कृश किये हैं, मुनिसंघ के समक्षा आहार के त्याग के लिए प्रयत्न करना चाहिए । अर्थात-पावज्जीवन या काल की अवधि पर्यन्त आहार का त्याग करना चाहिए ॥ ४३९ ।। यदि अन्तसमय ( मरणवेला) में मन मलिन रहा तो जोवनपर्यन्त किये हुए यम ( बाह्य व आभ्यन्तर शौच, तप, स्वाध्याय और धर्मध्यान ), नियम' ( अहिंसादि), शास्त्र-स्वाध्याय, इच्छानिरोध लक्षणवाला तप, देव पूजा व पात्रदान-आदि समस्त धार्मिक अनुष्ठान निष्फल हैं ।। ४४० ।। जैसे कोई रामा, जिसने बारह वर्ष पर्यन्त शस्त्रविद्या ( शस्त्रों का संचालन-आदि ) का अभ्यास किया है, यदि युद्धभूमि पर शत्रु के प्रति कायरता दिखाता है तो उसकी शस्त्रविद्या निष्फल है वैसे ही साधु भी, जिसने पहले जीवनभर ग्रहाचार व तत्वज्ञानआदि का अभ्यास किया, यदि मृत्यु के अवसर पर समाधिमरण से विमुख हो गया तो उसका पूर्वकालीन समस्त धार्मिक अनुष्ठान व्यर्थ है ।। ४४१।। उन्धुजनों से स्नेह, धनादि वैभव से मोह और शत्रु के प्रति कलुपता को छोड़कर समस्त दोषों को आचार्य से निवेदन करे और उसके बाद समाधिमरण की योग्य विधि का पालन
१. पसितकेयाः किल पूर्व कर्णसोपे दृश्यन्ते । २. तथा चाह पं० माशापरः___'उपवासादिभिः कायं कषायं च श्रुतामृतः । संलिलख्य गणिमध्ये स्यात् समाधिमरणीयमो' ।।१५।। सागार० अ०८॥ ३. मरणाम । ४, तथा चाह पं० आशावर:___'नृपस्येव यतेधर्मो चिरमम्पस्तिनोस्त्रवत् । सुधीव स्खलितो मृत्यौ स्वार्थभ्रंनोऽयशः कटु ॥१७॥ --सागार० अ०८ । ५. सथा पाह स्वामी समन्तभद्राचार्य:
'स्नेहं वैरं सङ्गं परिग्रह वाणहाय पानमनाः । स्वजन परिजनपि ष शारदा क्षमयेत् प्रिययनैः ।।१२४।। आन्दोच्य सर्वमनः कृतकारितमनुमत्तं च निर्व्याजम् । आरोपयेन्महानतमामरणस्थायि निश्शेषम् ॥१२५।।'
--रत्नकरण्ड श्रा० ।