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अष्टम आश्वास:
पाकाष्ययने यतिनामनिवं जनश्वसुश्चत्वारिंशः कल्पः ।
सलमित्र परिपक्वं स्नेहविहीनं प्रपमिव बेहम् । स्वयमेव विनाशोन्मुख मनुष्य करोतु विधिमन्त्यम् ॥४३४ ॥ "गहनं शरीरस्य हि विसनं किं तु गहनमिह वृत्तम् ।
तन्न
तु विनाश्यं न नश्वरं शोच्यमिवमाहुः || ४३५ ।।
४६७
* प्रतिदिवस विजवलमुदमुक्ति त्यजस्प्रतीकारम् । पुरेव नृणां निगिरति चरमचरित्रोचितं समयम् ।।४३६।। "साि पापकृतेरिव जनितालिकाकम्पनातङ्का । यमबूलीव मरा यवि समागता जीवितेषु कस्लवः ।।४३७॥
दूसरी समुद्देशमा भिक्षा छठी प्रतिमा तक होती है और ग्यारहवीं प्रतिमा के धारक क्षुल्लक व ऐलक विशुद्धा नाम की भिक्षा करते हैं तथा साधु भ्रामरी मिक्षा करते हैं; क्योंकि मुनिजन दाताओं को बाघा न पहुँचाकर भँवरे की तरह आहार करते हैं; अतः उनको भिक्षा का नाम भ्रामरी है ।। ४३३ ||
इसप्रकार श्रीमत्सोमदेवरि के उपासकाध्ययन में मुनि के नामों की व्युत्पत्तिपूर्वक व्याख्या को बतलानेवाला चोवालीसवां कल्प समाप्त हुआ ।
[ अब समाधिमरण को विधि का निरूपण करते हैं- 1
वृक्ष के पके हुए पते सरीखा या तैल-रहित दीपक सरीखा शरीर को स्वयं ही विनाशोन्मुख जानकर समाधिमरण करना चाहिए || ४३४ || आचार्यों ने कहा है कि शरीर का त्याग करना आश्चर्य जनक नहीं है किन्तु लोक में संयम धारण करना आश्चर्य जनक है; अतः यदि शरीर स्थिर-शील है तो उसे नष्ट नहीं करना चाहिए और यदि हो तो हो सोक नहीं करना चाहिए ।। ४३५ ।। [ अब समाधिमरण का समय बताते हैं--]
जब शरीर प्रतिदिन क्षीण शक्तिवाला हो जाय और जिसने आहार ग्रहण छोड़ दिया हो एवं जब उसकी रक्षा के उपाय ( औषधादि ) व्यर्थ हो जाय तब स्वयं शरीर ही मनुष्यों को कह देता है, कि अब समाधिमरण का समय आ गया है || ४३६ || जब मानवों को यमराज को दूती- सरीखी वृद्धावस्था आ जाय, जो कि समस्त शरीर में कम्पन व व्याधि को उत्पन्न करनेवाली है और जो ऐसी मालूम पड़ती है मानों – पापकार्य की निकटतम ही है- तब उन्हें जोवन की लालसा क्यों करनी चाहिए ? अर्थात् — उस समय गृहस्य या मुनि को जीवन को अभिलापा छोड़ देनी चाहिए || ४३७ ॥ वृद्धावस्था द्वारा कानों के समीपवर्ती श्वेत बालों की
१. तथा च विद्वान् श्रगाधरः
'गहनं न तनोनिं पुंसः किन्त्वत्र संयमः । योगानुतेर्व्यावृत्य तदात्मात्मनि युज्यताम् ॥२४॥ सागर० अ० ८ । ★ आश्चर्य न शरीरमोचनं ।
२. तथा न गं० आशाधरः
'न धर्मसाधनमिति स्थास्तु नाश्यं वपुषुवैः । न च केनापि नो रक्ष्यमिति शोच्यं विनश्वरं ॥५॥ - सागार० अ० ८ । ३. तथा च श्रीमद्विधानन्दि बाचार्य:
मरणसं वेतनाभावे कथं सल्लेखनायां प्रपन्न इति चेन्न जरारीगेन्द्रयहानिभिरा वषय परिक्षयसंप्राप्ते यत्तस्य स्वगुणरक्षणे प्रयत्नात् ततो न सल्लेखनात्मवधः प्रयत्नस्य विशुशुभं गत्वातपश्चरणावियत् । तत्वार्थवलोकवार्तिक २०७ सूत्र २२ ० ४६७ की अन्तिम ल० १ तथा पृ० ४६८ की शुरु को १३ लकीर ★ मरणावतरं । ४. समपतिनीव । * सविधापायकृतैरिव क० १ ५. का सुष्णा ? ।