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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये
विवेक बंदयेवुनच शारीरशरीरिणोः । स प्रोत्वं विषां दो माखिलक्षयकारणम् ॥४२७।। जासिर्जरा मतिः पुसा प्रयो संसृतिकारणम् । एषा प्रयो यतस्त्रय्याः' शीयते सा प्रयो मता ॥४९८।। अहिंसः सातो ज्ञानो निरीहो निष्परिग्रहः । यः स्यात्स ब्राह्मणः सत्यं न तु झातिमवान्धसः ।।४२९।। सा जातिः परलोकाप यस्याः सक्षमसंभवः । न हि सस्याय जायेत शुद्धा भूयोजजिता ॥४३०॥ सोयो य: शिवज्ञाता स बौद्धो योऽन्तरात्मभूत् । ससांख्यो यः प्रसंख्यावास द्विजो यो न जन्मवान् ॥४३१॥ मानहीनो दुराचारो निर्वयो लोलपाशयः । बानयोग्यः कथं स स्पा चाक्षामुमतकियः ॥४३२॥ *अनुमान्या "समुद्देन्या त्रिशुखा भ्रामरो तया । भिक्षा सुविधा जेया' यतिक्षयसमाश्रया ||४३३॥
भावार्य-श्री भगबज्जिनसेनाचार्य ने भी कहा है कि निर्दोष (अहिंसा धर्म का निरूपण करने वाला ) द्वादशाङ्ग भुत हो वेद है, परन्तु प्राणि-हिंसा का समर्थक वाक्य ( शास्त्र ) वेद नहीं है, उसे तो कृतान्त की वाणी समझनी चाहिए' ।। ४२७ ।।
पुरुषों के जन्म, जरा व मरण ये तीनों संसार के कारण हैं, इस यी ( इन तीनों ) का जिस रत्नत्रय ( सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यषचारित्र ) रूपत्रयो से नाश हो वही त्रयी मानी गई है | अभिप्राय यह है कि ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेद को श्रयो कहते हैं किन्तु शास्त्रकार कहते हैं, कि जो संसार के कारण अन्म, जरा व मरण को नष्ट करने में समर्थ है, वही रतमाही मच्ची नगी है।1:ो याद है समीचीन रूप से अहिंसा-आदि यतों का माचरण करता है, ज्ञानवान है, निःस्पही है एवं वाह्य (धन-धान्यादि ) व अन्तरङ्ग ( मिथ्यात्व-प्रादि ) परिग्रहों से रहित है, वहीं साधु यथार्थ ब्राह्मण है, जो मनुष्य केवल जाति ( ब्राह्मणत्व ) के मद से अन्धा है, वह ब्राह्मण नहीं है ।। ४२९ ।। बहो जाति परलोक के लिए उपयोगी है, अर्थात स्वर्ग आदि सख को उत्पन्न करनेवाली है. जिससे प्रशस्त धर्म सम्यग्दर्शन-आदि) की उत्पत्ति होती है; क्योंकि जिस प्रकार भूमि के शुद्ध होने पर भी पदि वह घान्यादि के बीजों से रहित है तो वह धान्योत्पत्ति के लिए समर्थ नहीं होती उसी प्रकार प्रशस्त वाह्मणत्व-आदि जाति भी सम्यग्दर्शनादिरूप धर्म-प्राप्ति के विना स्वर्ग-आदि सुख को उत्पन्न करने में समर्थ नहीं हो सकती ।। ४३० ॥ जो शिब { कल्याणकारक मोक्ष या भोक्षमार्ग ) का ज्ञाता है, वही शैव ( शिव का अनुयायी) है। जो आत्मतत्व का ज्ञाता है, वही बौद्ध है। जो आत्मध्यानी है वहीं सांख्य है एवं जो संसार में पुनः जन्मधारण करनेवाला नहीं है, वही द्विज ( ब्राह्मण ) है । अभिप्राय यह है कि जो कुलोन माता-पिता से उत्पन्न होकर उपनयन संस्कार-युक्त होकर गुरु के पादमूल में लत्वज्ञान प्राप्त करता है, जिसका द्वितीय संस्कार-जन्म हुआ है और पुन: जिनदीक्षा धारपा करके कर्मों का झय करता है । अत: जिसे तीसरा जन्म धारण नहीं करना पड़ता बही सच्चा ब्राह्मण है ।। ४३१ ॥ जो अज्ञानी है, दुराचारी है, निर्दयी है, विषय-लम्पट है और पांचों इन्द्रियों के वश में हैं, वह आहार-आदि दान का पात्र कैसे हो सकता है ? अर्थात् ऐसे निःकृष्ट मानध के लिए कभी दान नहीं देना चाहिए ।। ४३२ ।। देशविरत और सर्वविरत की अपेक्षा से भिन्ना के चार भेद है-अनुमान्या, समुद्देश्या, त्रिशुद्धा और भ्रामरीमिक्षा। टिप्पणीकार ने कहा है कि अनुमान्या भिक्षा दशप्रतिमा तक होती है। आमन्त्रणपूर्वक आहार को समुद्देश्य कहते हैं, अतः १. सम्यक्त्वादेः। २. अन्तरात्मान बुध्यतीति । ३, पंचेन्द्रियवशः। ४. दशप्रतिमापर्यन्तं । ५. आमन्त्रणपविका षट्प्र
तिमापर्यन्तं । ६. ब्रह्मचारि-मुनि । * तथा भगवज्जिनसेनाचार्य :
श्रुतं सुविहितं वेदो द्वादशाङ्गमकल्मष । हिंसोपवैशि मवाक्यं न वेदोऽसौ कृतान्तबार ॥२२॥ -यादिपुराण पर्व. ३९
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