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प्रशस्तिलकचम्पूकाव्ये काले कला घले चित्त देहे चान्नाविकोटके । एतचित्रं यदद्यापि जिनरूपधरा नराः १३३९।। पमापूण्य जिनेन्द्राणां रूपं लेपादिनिमितम् । तथा पूर्षमुनिसष्ठायाः पूज्याः संप्रति संपताः ।।३४० || सवुत्तमं भवेत्यानं पत्र रत्नत्रयं नरे । देशवती भवेन्मध्यमन्यच्यासंपलः सुदक ॥३४१।। पत्र रत्नत्रयं नास्ति समपात्रं पिदुर्घषाः 1 उगतं तत्र वृषा सर्वभूपराया तिनाविव ॥३४२॥ पात्र वत्तं भवेबन्न पुण्याय गृहमेधिनाम् । शुक्तावेच हि मेघानां जलं मुक्ताफलं भवेत् ।।३४३॥ मिथ्यावास्तचित्तषु चारित्राभासभागिषु । बोपायव भवेद्दानं पयःपानमिवाहिषु ॥३४४॥ कारुण्यावयदोषियातलो किचिदिशग्नपि । विशेबपतमेवान्नं गृहे भक्ति न फारयेत् ।।३४५॥ सत्कारादिविषावेषां दर्शनं दृषितं भवेत् । पया विशुदमपाम्बु विषभाजनसंगमात् ।।३४६।। 'शाश्यनास्तिकयागजटिला जीवकाविभिः । सहावासं सहालाप तत्सेवां विवर्जयेत् ॥३४७।। अताततत्वचेतोभिर्दुराग्रहमलोमसः । युद्धमेव भवद्गोष्ठयां दण्यावण्डि कचाकचि ॥३४८॥
व दरिद्र मनुष्यों को क्रमानुसार औचित्य । दान व प्रिय वचन बोलकर सन्तुष्ट करना ) व काल का उल्लङ्घन न करके पाँच दान ( ऋषियझ-आदि ) देने चाहिए ॥ ३३८ ॥
[अब पंचम काल में साधुओं का विहार बतलाते हैं- इस दुःषमा नामक पंचमकाल में जब मानवों का मन चञ्चल रहता है और शरीर अन्न का भक्षक कोड़ा बना रहता है, यह आश्चर्य है कि आज भी जिनेन्द्र की मुद्रा के धारक माघु महापुरुष पाये जाते हैं ॥ ३३९ ।। जैसे पाषाण वगेरह से निर्मित जिन निम्ब पूज्य है वैसे ही वर्तमान के मुनि भो, जिनमें पूर्व मुनियों को सदृशता पाई जाती है, पूज्य हैं ॥ ३४० ।
पात्र के तीन भेद-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यक्चारित्र से विभूषित मुनि उत्तम पात्र हैं। अणुदती श्रावक मध्यम पात्र है और अविरत सम्बग्दष्टि जघन्य पात्र है || ३४१ ।। मम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यक्चारित्ररूप रत्नत्रय से शून्य ( मिथ्यादष्टि ) मानव को विद्वानों ने अपार समझा है, उसके लिए दिया हुला समस्त दान उस प्रकार निरर्थक है जिस प्रकार ऊपर भूमि में बोया हुआ बीज निरर्थक होता है ।।३४२।। मुनि-आदि पात्रों के लिए दिया हुआ आहारदान गृहस्थ श्रावकों को पुण्यवृद्धि के लिए होता है क्योंकि निस्सन्देह मेघों का जल सोप में हो पड़ने से मोती होता है, अन्यत्र नहीं ॥ ३४३ ।। जिनका चित्त मिथ्यात्व से माविष्ट है और जो मिथ्याचारित्र को पालते हैं, उनके लिए दान देना वैसा दोपजनक हाना है जैसे साँप का दूध पिलाना दोष-जनक होता है, अर्थात्-जहर उगलकर काटनेवाला होता है ॥ ३४८ ।। मिथ्याष्टियों के लिए दयाभाव के कारण अथवा औचित्य के कारण यदि कुछ स्वल्प दिया भी जाय तो भोजन के पश्चात् पकाये हुए अधिक आहार में से स्वल्प आहार दे देना चाहिए, किन्तु उन्हें गृह पर नहीं जिमाना चाहिए ॥ ३४५ ।। मिय्यादष्टियों का सन्मान-आदि करने से सम्यग्दर्शन वैसा दूषित हो जाता है जैसे स्वच्छ पानी भी विषेले वर्तन के संसर्ग से दूषित हो जाता है ।। ३४६ ॥ अतः बौद्ध, नास्तिक, याज्ञिक, जटाधारी तपस्वी ब कछिद्रा संन्यासी-आदि सम्प्रदाय के साधुओं के साथ निवास व वार्तालाप व उनको सेवा छोड़ देनी चाहिए ॥ ३४७॥ ऐसे मिथ्याष्टियों के साथ वार्तालाप करने से, जिनके मन यथार्थ तत्त्र के ज्ञाता नहीं हैं और जो
१. मिथ्यादृशां। २. स्वल्पं ददद् ।
न तु पूर्व समीचीनं। ५. कुदृशां । इति मापाया।
३. दद्यात् । ४. स्वभोजनानगरमधनं अधिक स्त्रितं तदेव, ६. बौद्ध । ७. तपस्वी। ८. आजीवका: बावियकर्णा: 'कनधिदा'