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यशस्तिलकचापूकाव्ये धर्मेषु स्वामिसेवायां सुतोत्पत्तौ च कः सुधीः । अन्यत्र कार्यवेवाम्या प्रतिहस्तं समाविशेत् ॥३३०।।
आत्मवित परित्यागात्परधर्मविषापने । निःसंवेहमवाप्नोति परभोगाय सत्फलम् ।।३३१॥ भोज्यं भोजनशक्तिश्च रतिशक्तिवरस्त्रियः । विभवो दामशक्तिश्च स्वयं धर्मकृतेः फलम् ।।३३२॥ शिल्पि'कारक वापथ्य संभलीपतितावि। वहस्थिति म कुर्वीत लिजिलिङ्गोपजीविषु। ३३३|| वीक्षायोग्यास्त्रयो वर्णाश्चत्वारश्च विवोचिताः" । ममोवाकारधर्माय मताः सर्वेऽपि जन्तवः ।।३३४।।
[ अब ग्रन्थकार दूसरों से दान-पुण्यादि कराने वालों के विषय में कहते हैं | जो कार्य दूसरों से करानेयोग्य है या जो भाग्य-वश हो जाता है (जो कुछ भी इष्ट-मनिष्ट-सुख-दुःख होता है, वह भाग्याधीन है उसे स्वयं करने का नियम नहीं है ) उनको छोड़कर दान पुण्यादि धार्मिक कार्य व स्वामी को सेवा एवं पुत्रोत्पत्ति को कौन बुद्धिमान मानव दूसरों के हाथ से कराने के लिए आदेश देगा ? अर्थात्-विवेकी पुरुषों को उक्त कार्य स्वये करने चाहिए ।।३३०|| जो अपना धन देकर दूसरों के हाथ से धर्म कराता है, वह उसका फल दूसरों के भोगने के लिए प्राप्त करता है, इसमें सन्देह नहीं है, अर्थात्--उसका फल दूसरे हो भोगते हैं ॥३३१।। भोज्यपदार्थ, भोजन करने की शक्ति, रतिविलास करने की सामथ्यं, कमनीय कामिनियाँ, धनादिबैभव और दान करने को शक्ति ये वस्तुएँ स्वयं वर्म करने से प्राप्त होती हैं, न कि दूसरों से धर्म कराने से ।।३३२।।
मुनियों के आहार-ग्रहण के अयोग्य गृह मुनियों को बढ़ई, माली, कारुक ( नाई, धोबो -आदि ), भाट, कुट्टिनी स्थी, नोच व जाति से बहिष्कृत और साधुओं के उपकरण ( पोछो-आदि ) बनाकर जोविका करनेवालों के गृहों में आहार नहीं करना चाहिए ॥३३३||
जिनदीक्षा व आहारदान के योग्य वर्ण ब्राह्मण, यात्रिय व वैश्य ये तीन वर्ण ही जिन-दीक्षा के योग्य हैं किन्तु आहारदान देने योग्य चारों ही वर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व सत् पून) हैं, क्योंकि सभी प्राणी मानसिक, वाचनिक व कायिक-धर्म के पालन के लिए आगम से अनुमति हैं ॥३३४।।
१-२. यत् किमपि इष्टमनिष्टं च वैवः करोति, तत्र स्वहस्तः न किमपि फतुं शक्नोति,
अतस्तत्र स्वहस्तनियमो नास्ति । ३. निजधनेन परहस्तेन धर्म कारपत्ति स्वहस्तेन न दतै। ४. तथा चाह-भगजिनसेनाचार्य:ग्यावृत्तिनियतान् शूयान् पस्याबासृजत् सुधीः । वर्णोत्तमं शूभूषा तवृत्तिनकया स्मृता ॥१९०।। 'शूद्रा न्यावृत्तिथियात्' ।।१९२-४।। 'तेषां शुश्रूषणाच्छूद्रास्त द्विधा कार्यकारवः । कारनी रजकाद्याः स्युस्ततोऽन्य स्थरकारबः ॥१८५।। कारवोऽपि मता द्वेधा स्पृश्यास्पृश्यविकल्पतः । वास्पृश्याः प्रजावाहाः स्पृश्याः स्युः कीर्तकादयः ॥१८६।।
__-महापुराण १६ यो पर्व । ५. वाश्पण्याः बन्दिनः । ६, संभली कुट्टिनी । ७. जातियाहाः। ८. याहार। ९. यतीनामुपकरणपारखीपिन्छयोगपट्टादिकरणजीषिना गृहे आहारो न कर्तव्यः । १०.पाः। ११. शुगर्जनानामपि विधा-आहार-उचितो योग्यः दीयते इत्यर्थः।