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अष्टम आश्वासः
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महतं तमुत्र स्माबित्यसरपपरं पनः । गामः पयः प्रयच्छन्ति किन सोयतणाशमाः ॥३७५॥ मुनिम्पः शाकपिण्योऽपि मस्या काले प्रकल्पितः । मवेवगण्यपुण्यार्य भक्तिश्चिन्तामणियंतः ॥३७६।। अभिमानस्य रक्षापं बिनयाबागमस्यप। भोजनादिविषाने मोनमूचर्मनीश्वराः ॥३७७॥ लोयत्यागात्तपोवृदिरमिमानस्थ रक्षानं । ततपच समवाप्नोति मनःसिदि जगत्त्रमे १३७८॥ प्रतस्य प्रभपाच्छयः समः त्यस्तमाभयः । ततो मनुजलोकाय प्रसौबति सरस्वतो ॥३७९॥ शारीरमानसागन्तुष्याषिसंवापसंभवं । साघु संमिनां कार्यः प्रतीकारो महाभितः ।। ३८०॥
तत्र दोषभातुमसविकृतिजनिताः शारीराः, बौमनस्यःस्वप्नसावसाघिसंपाविता मानसाः शीतवाताभिबातारिकता आगन्तवः ।
मध्य साविक दान उत्तम है, राजसदान मध्यम है और तामसदान निकृष्ट है ॥ ३७४ ।। जो दान दिया गया, वह दाता को परलोक में फलदायक होता है, यह वचन मिथ्या है, क्योंकि दान का फल इसी लोक में मिल जाता है, जैसे पानी पीनेवाली व घास-भक्षण करनेवाली गाएं क्या दूध नहीं देतो? अर्थात--जिस दिन गायों के लिए पानी पिलाया जाता है और घास खिलाई जाती है उसी दिन वे दूध दे देती हैं, इससे दाता को दान का फल (कीति-लाभ व मानसिक शुद्धि) इसी लोक में मिल जाता है । अथवा दूसरी तरह से यह अर्थ समझना चाहिए किदाता पात्र के लिए यदि रूखा-सूखा अन्न देता है तो वही रूखा-सखा अन्न उसे परलोक में मिलेगा, यह कथन झूठ है। क्योंकि गायों के लिए प्रेमपूर्वक पानी व घास ही दिया जाता है, परन्तु वे उसके बदले मधुर दूध दे देती हैं । अतः मुनियों के लिए आहार की वेला में भक्तिपूर्वक दिया गया शाक-पात का पुज भी, अपरिमित पुण्य का कारण होता है। क्योंकि भक्ति ही चिन्तामणि है।
निष्कर्ष-दाता की श्रद्धा व भक्ति से ही दान की कीमत औको जाती है, न कि पात्र के लिए दिये जानेवाले द्रध्य की कीमत से । अतः पात्र के लिए भक्तिपूर्वक दिया गया शाक-पात भी दाता को प्रचुर फलदायक होता है, न कि विना भक्ति के दिया हुआ मिष्ठान्न भोजन ॥ ३७५-३७६ ॥
[अब आहार की वेला में मौन का विधान करते हैं
जिनेन्द्र भगवान् ने स्वाभिमान की रक्षा के लिए और श्रुत को विनय के लिए आहार को वेला. आदि के अवसर पर मौन रखना कहा है। जिह्वा की लम्पटता का त्याग करने से तप की वृद्धि होती है और स्वाभिमान ( याचना न करना ) की रक्षा होती है और उनके होने से तीन लोक में मनसिद्धि होती है । मौन द्वारा श्रुत की विनय करने से कल्याण होता है और वह मुक्तिरूपी सम्पत्ति का आश्रय होता है और उससे ( मान से ) मनुष्यलोक के कपर सरस्वती प्रसन्न होती हैं, अथात्-तोन लोक के अनुग्रह करने में समर्थ दिव्यध्यान का प्रसाद प्राप्त होता है ।। ३७७-३७९ ।।
संयमी मुनियों की व्याधियों के प्रतीकार का विधान संयमी मुनिजनों को शारीरिक ( वात, पित्त व कफ को विकृति-आदि से उत्पन्न होनेवाले बुखारआदि रोग ), मानसिक व आगन्तुक व्याधियों की पीड़ा होने पर गृहस्थ श्रावकों को भलीप्रकार उन कष्टों के दूर करने का उपाय करना चाहिए ।। ३८० ॥
___ उनमें वात, पित्त व कफ को विकृति से, रस-रक्त आदि धातुओं के विकार से और मल के विकार १. वातपित्तश्लेष्म । २, तथा चोक्तं-'शरीराः ज्वरकुष्टाद्याः कोषाधा मानसाः स्मृताः । मागन्तवोभिपातोस्थाः सहजाः जुत्तषादयः ।। ८८ ॥'-धर्मरना, प० १२८ ।
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