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यशस्तिलकचम्पूकामे स्वरूपं रचना शुधिभूषार्पण समासतः । प्रत्येकमागमस्यैतबुद्धविऽयं प्रतिपचते १५३९३॥
सत्र स्वरूप च विविषम्-अवरम्, 'अनक्षरं । रचना विविषा-गद्यम्, पछ । शुदिदिविषा-प्रेमाबप्रयोगविरहः, अर्मश्यमनविफलतापरिहारश्च । मूषा विविधा-मागलंकारः, मर्यालंकारपच । अर्को द्विविमः- 'चेतनोचेतनश्च', 'जातिव्यक्तिपतिवा।
'साषं सचिसनिक्षिप्तपत्ताम्यां पानहानये । अन्योपदेशमात्सर्षकालातिकमणकियाः ॥३९४॥
अज्ञानी युग बीत जानेपर ज्ञान के लवलेषामात्र में भी कुशल नहीं होता ॥ ३९१ ॥ जिसको बाणी व्याकरणशास्त्र के अभ्यास से शुद्ध नहीं हुई, अर्थात् जो व्याकरणशास्त्र का वेत्ता नहीं है, और जिसकी बुद्धि नीति. शास्त्रों के अभ्यास से अथवा नयों (द्रव्याकिन पर्यायाणिक ! के अभ्यास से शुद्ध नहीं हुई, अर्थात्-जो नीतिशास्त्र का अथवा नयों का बेसा नहीं है, वह मानव दूसरों के विश्वास के अनुसार चलने से कष्ट उठाता हुआ अन्धा-सरीखा है ।। ३९२ ।।
प्रत्येक शास्त्र में संक्षेप से निम्नकार वस्तुएँ होती हैं | स्वरूप, रचना, शुद्धि, अलकार और वर्णन किया हुआ विषय और ये प्रत्येक दो दो प्रकार के हैं ।। ३९३ ।।
स्वरूप दो प्रकार का होता है-अक्षरात्मक, जो कि द्वादशाङ्गों के अक्षरोंवाला है और दूसरा अनक्षरात्मक ( अस्फुट अर्थ को सूचन करनेवाला जैसे तड़त्-तहत् इत्यादि । रचना दो प्रकार की है-गद्यरूप और पद्यरूप, अर्थात्-विना श्लोकवाले और इलोकवाले शास्त्र । शुद्धि दो प्रकार की होती है । एक तो शास्त्रकार की असावधानी से शब्दों के प्रयोग में होनेवाली अशुद्धियों का अभाव और दूसरे न उसमें कोई अर्थ छूटा हो और न कोई शब्द छूटा हो। अलङ्कार दो प्रकार के होते हैं-एक शब्दालंकार ( शान्दों में सौन्दर्य के उत्पादक अनुप्राम-आदि ) व अर्थालङ्कार ( अर्थ में सौन्दर्य लानेवाले उपमा-आदि) और वणित विषय दो प्रकार का है-चेतन ( जिसमें जीव द्रव्य का निरूपण हो जैसे समयसार-आदि) व अचेतन ( जिसमें पर्वत-आदि जड़ पदाथों का कथन हो) या जाति पुल्लिङ्ग, स्त्रोलिङ्गव नपुंसकलिङ्ग वाले शब्द जिसमें पाए जाते हैं) और व्यक्ति ( जिसमें एकवचन व बहुवचनवाले शब्द समूह हो ।
अतिथिसंविभाग व्रत के अतीचार सचित्त कमल के पत्तों आदि में आहार स्थापित करना, सचित्त पत्ते वगैरह से आहार को ढांकना, दूसरे दातार को वस्तु दान देना, अन्य दाताओं से ईर्ष्या करना और असमय में आहार देना, ये पौध
१. अस्फुटार्थसूचनार्थ, यया तदत्तहिति पटपटायति। २. यत्र जीवादीनां व्याख्या क्रियते सोऽयश्चेतनः। ३. बत्र
पर्वतादोनां न्यासया स अपेतनः। ४. जातिलिङ्ग । ५. व्यक्तिरेकवचन द्विवचनं, बहुवचनं । ६. तया चाह श्रीमदमास्वामी आचार्यः
'सचित्तनिक्षेपापिधानपरव्यपदेवामात्सर्यकालातिकमा:-मोक्षशास्त्र -३६ । तपा चाह प्रोसमन्तभट्टाचार्य:'हरितपिधाननिषाने छनादरास्मरणमत्सरत्वानि । वैयावस्पस्मते व्यतिक्रमाः पञ्च कथ्यन्ते ॥ १२१ । -रना।