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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये
"प्रतिग्रहो छ। सनपादपूजा प्रणाम वाक्कायमनः प्रसावाः ।
२ विद्याविशुद्धियच नवोपचाराः कार्या मुनीनां गृहसंश्रितेन ॥ ३२० ॥
मद्धा तुष्टिर्भक्तिविशानधता क्षमा शक्तिः । यते सप्तगुणालं यातारं प्रशंसन्ति ॥ ३२१॥
ar विज्ञानस्पेवं लक्षणम्
विवणं विरसं विद्धमात्मनो न तद्देयं यच भवावहम् ॥३२२|| fog नौलो कामयोद्दिष्ट" विगतम् । न देयं तुनस्पृष्टं देवयक्षादिकल्पितम् ॥ ३२३॥ ग्रामान्तरात्समानीतं मन्त्रानोतमुपायनम् । न वैयमापणक्रीतं विरुद्धं वाध्ययकम् ॥ ३२४ ॥
गृहस्थ को मुनियों की नवधा भक्ति करनी चाहिए । १. प्रतिग्रह ( पड़गाहना अर्थात -- अपने गृहके द्वार पर मुनि को आते देखकर उन्हें आदरपूर्वक स्वीकार करते हुए 'स्वामिन् ! नमोस्तु ठहरिए व्हरिए, वहरिए इस प्रकार तीन बार कहना ) २. उच्चासन ( गृह के मध्य ले जाकर ऊँचे आसन पर बैठाना ) ३. पादप्रक्षालन (उनके चरणकमलों को प्रक्षालित करना) ४. पादपूजा (पश्चात् उनके चरणकमलों की पूजा करना), ५. प्रणाम (पञ्चाङ्ग नमस्कार करना ), ६.७.८. मनशुद्धि वचनशुद्धि व कायशुद्धि कहना और ९. आहारशुद्धि ( अन्न-जलशुद्धि ) | ये नवधा भक्ति हैं ।। ३२० ।।
जिस दाता में निम्न प्रकार ये सात गुण होते हैं, उसको आचार्य प्रशंसा करते हैं - १. श्रद्धा ( पात्रदान के फल में विश्वास करना ), २. तुष्टि ( सन्तोष- दिये हुए आहार दान से हर्षित होना ), ३. भक्ति ( पात्र के गुणों में अनुराग होना ), ४. विज्ञान ( आचार शास्त्र का ज्ञान ), ५. अलुब्धता ( दान देकर सांसारिक सुख की अपेक्षा न करना ), ६. क्षमा ( क्रोध के कारणों की उत्पत्ति होनेपर भी क्रोध न करना) और ७. शक्ति (स्वल्प घन होनेपर भो दान देने में रुचि होना ) ।। ३२१ ।।
[ अब इन गुणों में से विज्ञान गुण का स्वरूप शास्त्रकार स्वयं बताते हैं ]
विवेकी श्रावक को मुनियोंके लिए ऐसा सदोष भोजन नहीं देना चाहिए, जो विरूप है, जो चलितरस है, जो चुना हुआ ( क्रोड़ों के व्याप्त ) है, जो साधुकी प्रकृति के विरुद्ध है, और जो विशेष जीर्ण या जला हुआ है तथा जिसके खाने से रोग उत्पन्न होते हैं। जो झूठा है, ओ नोच पुरुषों के खाने योग्य है, जो दूसरे ( किसानों-आदि) के उद्देश्य से बनाया गया है, जिससे अशोधित है, जो निन्द्य है, जो दुर्जनों से छू गया है, और जो देव व यक्ष आदि के सत्कार के लिए बनाया गया है ।। ३२२-३२२ ।। इसी तरह जो दूसरे गाँव से लाया हुआ है, जो सिद्ध मन्त्रों से लाया हुआ है, जो भेंट में आया है, और जो बाजार से खरीदा गया है एवं
१. तथा चाह भगवज्जिनसेनाचार्य:
'प्रतिग्रहणमत्युत्रः स्थानेऽस्य विनिवेशनम् । पादप्रभावनञ्चार्या नतिः शुद्धिश्च सा त्रयी ॥ ८६ ॥ -- महापुराण' । तथा चोक्तं- 'प्रतिग्रहोच्चस्थानेच प्रक्षालनमर्चनम् । प्रणामो योगशृद्धिश्च भिक्षाशुद्धिश्च तं नव' ॥ १ ॥ - वारिप्रसार पू० १४ ।
अभ्युत्थानं । पूर्वं पादप्रक्षालनं पश्चात् पूजा । २. विधा आहारः । ३. 'अतिजीर्ण' टि० ख० 'प्रभूतं यदुमं धान्यं न प्ररोहति प्रथा न फलति' इति यदा० पञ्जिकाकारः । ४. रोगकारि । ५. ककरादिनिमित्तनिष्पक्षमशोषितत्वात् । ६. प्रामृत - लाइनकं ।