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अष्टम आश्वासः
"सौरूप्यमभयावहुराहाराद्भगवान्भवेत् । आरोग्यमौषधान्यं सारस्याच्छू सकेवल ।। ३१५।। *अभयं सर्वसत्वानामाद दद्यात्सुधीः सका। तीन हि घ्या सर्वः परलोकोचितो विधिः ।।३१६|| दानमन्यवेन्या वा नरइवेदनपत्रः । सर्वेषामेव यानानां यतस्तद्दानमुत्तमम् ॥३१७॥ तेनाधीतं भूतं सर्व तेन तप्तं तपः परम् । तेन कृत्स्न कृतं दानं यः स्थावभयदानवान् ||३१८॥ नवोपचारसंपलः समेतः सप्तभिर्गुणः । मन्यसुविधा शुद्धः साधूनां कल्पयेरिस्थतिम् ॥३१९॥
की इच्छा नहीं होती; अतः जो धनाढ्य व श्रद्धालु होते हैं, वे ही उक्त चारों प्रकार का दान पात्रों के लिए दे सकते है || ३१४ |
दानों का गल
आचार्यों ने कहा है कि अभयदान (प्राणि रक्षा) से दाता को सुन्दर रूप मिलता है, आहार-दान से भोगसामग्री प्राप्त करनेवाला होता है एवं औषधिदान से निरोगता प्राप्त होती है तथा शास्त्रदान से श्रुत केवली होता है ।। ३१५ ।।
अभयदान की श्रेष्ठता
विवेक मानव को सबसे प्रथम समस्त प्राणियों के लिए सदा अभयदान देना चाहिए। क्योंकि अभयदान न देनेवाले ( निर्दयो ) मानव को निस्सन्देह सभी पारलौकिक क्रियाएं व्यर्थ है ।। ३१६ ।। क्योंकि अभयदान (प्राणि-रक्षा ) समस्त दानों में श्रेष्ठ है, अतः यदि अभयदान देनेवाला मानव दूसरे दान करनेवाला हो अथवा न भी हो तो भी उसका कल्याण होता है ॥ ३१७ || जो मानव अभयदान देता है, उसने समस्त शास्त्र पढ़ लिए और उत्कृष्ट तप कर लिया एवं समस्त दान कर लिए। अर्थात् — वह शास्त्रवेत्ता, परमतपस्वी व' समस्त दानों का कर्ता है ॥ ३१८ ॥
[ अब आहारदान को कहते हैं ]
सात गुणों (श्रद्धा व तुष्टि- आदि) से युक्त दाना को नवधा भक्ति ( प्रतिग्रह व उच्चासन आदि ) पूर्व अन्न, पान, स्वाद्य व ला भेद से चार प्रकार के शुद्ध आहार द्वारा मुनियों की भोजन विधि करना चाहिए, अर्थात् — उनके लिए चार प्रकार का शुद्ध आहार देना चाहिए ।। ३१९. ॥
१ तथा चीतं - श्रीरूप्यभयात् प्राहुरारात् सर्वस्थता | श्रुतात् श्रुततामीशां निर्व्यापित्वं तथा ॥ १८ ॥ — प्रबोधसार पृ० १९० ।
* तथा चोतं - 'धर्मार्थकाममोक्षाणां जीवितव्यं यतः स्थितिः । तद्दानतस्ततो दत्तास्ते सर्वे सन्ति देहिनाम् ॥ ८४ ॥ - नमि० श्र० ९ परि० ।
२. तथा चाह स्वामिसमन्तभद्राचार्य:---
नवपुष्यैः प्रतिपत्तिः सतगुणसमाहितेन शुद्धेन । अपसूनारम्भाणामार्याणामिष्यते दानम् ॥ ११३ ॥ - रत्न० । ३. अनपान खाद्यले ह्यभेदात् । ४. अवित्रः चमंजललादिरहितैः ।