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अष्टम माश्वास:
इत्युपासका ताराधनविधिर्नाम चश्वारिंशसमः कल्पः ।
पर्वाणि प्रशासे अवारितानि च । पूजा क्रियावताधिवाद्ध कर्मा श्येत् ॥ २९३॥ रसपागंक भक्तकस्थानोपवसन क्रियाः । यथाशक्तिविषेयाः स्युः 'पसन्धी पण ।। २९४ ।। तन्नरन्तयं सन्ततिथिती पूर्वकः । उपवासविधिचित्र चिन्त्यः श्रुतसमाश्रयः ॥ २९५॥ " स्नानगाङ्गसंस्कार वायोधाऽविवक्षोः । निरस्तसर्वभावयः संयमतत्परः ॥ २९६ ॥ देवागारे गिरौ चापि गृहे वा पहनेऽपि वा । उपोषितो भवेन्नित्यं धर्मध्यानपरायणः ।।२९७ ॥ पुंसः कृतोपवासस्य प्रारम्भरतादमनः । कायक्लेशः प्रजायेत गजनानस मक्रियः ।। २९८ ।।
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इस प्रकार उपासकाध्ययन में श्रुताराधनविधि नामक चालीसवाँ कल्प समाप्त हुआ । प्रोषधोपत्रास का स्वरूप
प्रत्येक मास में वर्तमान दो अष्टमी व दो चतुर्दशी इन चारों को 'प्रोषच' कहते हैं। इन पर्वों में व्रती श्रावक को विशेष पूजा, विशेष क्रिया और विशेष व्रतों का पालन करके धर्म-कर्म की बुद्धि करनी चाहिए ॥ २९३ ॥ पर्वसन्धि ( अष्टमी ) व पर्व के दिनों में रसों का त्याग, एकाशन, एकान्त स्थान में निवास उपवास आदि क्रियाएँ यथाशक्ति करनी चाहिए || २९४ || लगातार या बीच में अन्तराल देकर के तिथि, तीरों के कल्याणक तथा नक्षत्र को आधार बनाकर आगमानुसार अनेक प्रकार की उपवास-विधि विचार लेनी चाहिए। अर्थात् कोई तो रसत्याग आदि सदा करते हैं, कोई अमुक तिथि में करते हैं, कोई तीर्थंकरों के कल्याणकों के दिन करते हैं, इस प्रकार अनेक प्रकार की उपवासविधि आगम में निर्दिष्ट है, उसे विचार लेनी चाहिए ।। २९५||
उपवास करनेवाले गृहस्थ को स्नान, इत्र-फुलेल, शरीरसंस्कार, आभूषण और स्त्री में बनासक रखकर अर्थात् इन्हें त्यागकर और समस्त पाप क्रियाओं का त्याग करने वाला होकर चरित्र -पालन में तत्पर होना चाहिए और जिनमन्दिर में या पवंत पर गृह में या वन में जाकर सदा धर्मध्यान में तत्पर होना चाहिए ।।२९.६-२९७॥
जो मानव उपवास करके भी अनेक प्रकार के आरम्भों में अनुरक्त चिनवाला है, उसका उपवास ham काय - क्लेश हो है और उसकी क्रिया हाथी के स्नान की तरह व्यर्थ है । अर्थात् - जिस प्रकार हाथो स्नान करके पुनः अपने शरीर पर धूलि डाल लेता है, अतः उसका स्नान व्यर्थ हे उसी प्रकार उपवास करके गृहस्थ संबंधी प्रपञ्चों में फँसे हुए का उपवास निरयंक है, क्योंकि उससे आत्मा का हित नहीं होता ॥१२९६८ ।।
★ तथा चोकं समन्सभद्राचार्यैः चतुराहारविसर्जनमुपवास: प्रोषयः सकृद् मुक्तिः ।
प्रघोपवासो यदुषोण्यारम्भ
माचरति ॥ १०९॥ रत्न धा० । तथा च पूज्यपादः - प्रोषधशब्दः पर्षपर्यायवाची प्रोषधे उपवासः प्राषधीपदासः' ।— सर्वार्थसिद्धि । १ अएभ्यां । २. नक्षत्र ३ नानाप्रकारा ४ तथा चाह समन्तभद्राचार्य:--- 'पश्चानां पापानामलक्रियारम्भगन्धपुष्याणो स्नानाननस्यानामुपवासे रिति कुर्यात् ॥ १०७॥ धर्मामृतं सतृष्णः श्रवणाभ्यां मिषनु पायवेद्वाऽन्यान् । ज्ञानध्यानपरो वा भवतुपवसन्मतन्द्रालुः ॥११०८॥ - रत्नकरण्ड श्रा० 1