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अष्टम आश्वासः
या स्वल्पवस्तुरचनापि मितप्रतिः 'संस्कारतो भवति तविपरीतलामी: । स्ववल्लरोवनलतेष सुषानुबन्धात्तामद्भुत स्थितिमहं सबकंः धूयामि ॥२८३॥ (इत्यक्षतम् ) "यवबीजमल्पमपि सजनयोधरायां लापप्रवद्धिविविधानषिप्रबन्धः। 'सस्परपूर्वरसत्तिभिरेव रोहत्याश्वर्यगोचरविषि" प्रसवंजे ताम् ।।२८४।। (इति पुष्पम् ) या स्पष्टसाधिकविधिः 'परसन्प्रनीति: प्रायः १"फलापरिगतापि मनः प्रसूते ।। स्पष्टं स्वतन्त्रमुपशान्सकलं नृणां - चित्रा हि वस्तुगतिरलवियजेत ॥२८५॥ (इति चरम् ) १"एक पर्व बहुपवापि बाप्ति तुष्टा १३वर्णास्मिकापि न करोषि न वर्णभाजम् ।। सेवे तयापि भवतोमयषा जनोऽर्थी दोषं न पश्मति सबस्तु सर्षय छोपः ।।२८६॥ इति वापम् ।
सेवनीय नहीं होता जिसमकार न फलनेवाला वृक्ष फलार्थी पुरुषों द्वारा संवनीय नहीं होता और जिसका अनुसरण करनेवाला अत्यन्त अल्पज्ञानी भी मनुष्य कल्पवृक्ष की तरह तीनों लोकों से पूजनीय होता है। ॥२८॥ में उस आश्चर्यजनक स्थितिवाली ऐसी सरस्वती देवी को अक्षतों से पूजता है, जिसके अभ्यास से अल्प अर्थ वाली व अल्प शब्दवाली रचना भी उस प्रकार अपरिमित अर्थवाली व अपरिमित शब्दवाली होकर मुशोभित होती है जिसप्रकार अमृत के सिञ्चन से वमलता भी कल्पलता होकर सुशाभित होती है।५।२८२।। जिसकी विधि आश्चर्य का विषय है, उस जिनवाणी को मैं पुष्पों से पूजता है, जिसका छोटा-सा भी बीज सज्जनों को बुद्धिरूपी भूमि में वृद्धिंगत, नानाप्रकार के व असीम प्रबन्धों ( गद्य च पद्यरूप काव्य-रचनाओं ) द्वारा अपूर्वरस ( शृङ्गार-आदि व पक्षान्तर में मिष्टरस ) वाले फलों के साथ ऊँगता है ॥२८४॥ ऐसी वाणी को नानाप्रकार के नैवेद्यों से पूजना चाहिए, जो शब्दरूप होने के कारण नेत्रों से अगम्य है, अतएव अति अस्पष्ट है तथापि वह मानवों की आत्मा को स्पष्ट प्रकट करती है, जो कण्ट व तालु-आदि आठ स्थानों से उत्पन्न होने के कारण परतन्त्र है तो भी वह आत्मा को स्वाधीन करती है, जो मूर्ति-सहित है तो भी वह मानवों की आत्मा को शरीर-रहित कर देती है, सच है कि तत्वज्ञान बड़ा विचित्र है। आशय यह है, कि जिनवाणो श्रुतशानरूप' होने पर भी केवलज्ञान को प्रकट करती है, जिससे वह केवलझान मानवों की आत्मा को स्पष्ट जानता है और स्वाधीन बनाता है व शरीर-रहित कर देता है। अतः तत्वज्ञान विचित्र है ।।२८५।।
हे देवी! तुम बहुत पदोंवाली होकर के भी सन्तुष्ट होने पर आराधक जन के लिए एक पद प्रदान करती हो, यहाँ विरोध प्रतीत होता है, उसका परिहार यह है कि हादशाङ्ग के पदों की संख्या एक सौ बारह करोड़ तेरासी लाख अट्ठावन हजार पाँच है, अतः जिनवाणी बहुपदा ( बहुत पदोंवालो व पनान्तर में अमृत स्वरूप ) है और उसके द्वारा एक पद ( मोक्ष) प्राप्त होता है । और वर्णात्मक होकर के भी आराधक जन को ब्राह्मणादि वर्गों का धारक नहीं करती; यहाँ पर भी विरोध मालम पडता है, उसका परिहार यह है कि जिनवाणी वर्णात्मक (अक्षरात्मक) है, परन्तु सन्तुष्ट हुई आराधक जन को ब्राह्मणादि वर्गों से मुक्त करती है, तथापि
१. 'अल्पशब्दहिताऽपि' टि० ख०, 'स्तीकाजपि' टि. च. घ०। २. 'अल्पार्याऽपि' दि० ख०, 'स्वल्पशाम्दापि' टि० ०। ३. भगवत्याः अभ्यासवशात् । ४. अमितामहा। ५. यस्याः बीज। *. अल्पार्थाऽपि । ६. फलः कृत्या। ७. आश्चर्यण गोवरो गम्यश्चासौ विधिर्यस्याः सा ताम। ८. शब्दरूपत्वान्नेवाणाममम्या तथापि मनः आत्मानं स्पर्म स्वाधीनं प्रसूते प्रकटीकरोति । ९. अस्थानापेक्षया तथापि मनः स्वाधीनं सूते । १०. भूतिसहिताऽपि मनः आत्मानं उपशान्तकर्क शरीररहितं सूते। ११. अद्वितीयं मोक्षं। १२. कौटिशतभित्यादि पक्षे अमृतस्वरूपा । १३. अदारस्वरूपा पक्षे विवादि। * यचप्पेकपदत्वात् कृपणापि । १४. उपमालंकारः। १५. उपमालंकारः । १६. दिलष्टोपमालंकारः ।