Book Title: Yashstilak Champoo Uttara Khand
Author(s): Somdevsuri, Sundarlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

Previous | Next

Page 475
________________ अष्टम आश्वास ध्यानामृतान्नतृप्तस्य शान्तियोषितरतस्य च । अव रमते चिसंबोगिमो योगवान्धवे ॥२७१।। रज्जभिः कुष्यमाणः स्थाचा 'पारिप्लयो हयः । कुष्टस्तयेन्द्रियरास्मा ध्याने लोपेत न क्षणम् 11२७२।। रक्षा संहरणं "सृष्टि 'गोपुवामसवर्षणम् । विशाय पिन्सयेवाप्समाप्तरूपधरः स्वयम् ।।२७३।।। *घुमवन्निव मेल्पापं 'गुगबीजेन तादृशा । गृलीयादमृत "सेन "तम मुहर्मुखः ।।२७४॥ "संन्यस्ताभ्यामघोघ्रिभ्यामूहिपरि युक्तितः । श्वेश्च समगुल्काम्यां पपीरमुखासनम् ।।२७५।। द्वार ( दोनों नेत्रों के दो छिद्र-आदि ) हैं एवं जिसमें पाँच इन्द्रियरूपी मनुष्य निवास करते हैं तथा जो हृदय, नाभि व ब्रह्म रन्ध्र-आदि रूपी अनेक कोठरियों वाला है ।। २७० ॥ धर्मध्यानरूपी अमृतान्न से सन्तुष्ट हुए और क्षमारूपी स्त्री में अनुराग करनेवाले योगो का चित्त इसी ध्यानरूपी बन्धुजनों में ही कीड़ा करता है ॥ २७१ ॥ जैसलमाम से खोया जानेवाका बांक्षा बञ्चलो भाता है वैसे ही इन्द्रियों से प्रेरित आत्मा भी क्षण भर ध्यान में स्थिर नहीं होता; अतः ध्यानी को इन्द्रियों को वश में रखना चाहिए ॥ २७२ ॥ स्वयं आत ( अर्हन्त ) के स्वरूप का धारक 'मैं अर्हन्त भगवान् की तरह परमौदारिक वारोर में स्थित हूँ' ऐसी भावना करके धर्मध्यानी को रक्षा, संहार, सृष्टि, गोमुद्रा ( आसन विशेप) और अमृत वृष्टि को करके आप्त के स्वरूप का ध्यान करना चाहिए । अर्थात्-जिसप्रकार सकलीकरणविधान में पहले शरीर-रक्षा को जातो है और बाद में अग्नि तत्व द्वारा दहन-लक्षणवाला संहरण किया जाता है एवं पश्चात् चन्द्र ( वरुणमण्डल ) त-वष्टि की सष्टि की जाती है उसोप्रकार घोंगी को पिण्डस्थ नामक धर्मध्यान में पूर्व में शरीर-रक्षा करके और बाद में अग्नितत्व के चिन्तन द्वारा कर्म-दहन लक्षण वाला संहरण करके पश्चात् चन्द्र (वरुणमण्डल) से अमृतवृष्टि को सृष्टि करके सुरभिमुद्रा नामका आसन लगाकर आप्तस्वरूप का चिन्तवन करना चाहिए । भावार्थ-यहाँपर मन्थकार ने पिण्डस्थ नामक धर्मध्यान में पाथियों व आग्नेयी-आदि धारणाओं के चिन्तवन के विषय में लिखा है, उन धारणाओं का विस्तृत स्वरूप हम इसो '३९ वें कल्प के श्लोक नं०९२ के भावार्थ में उल्लेख कर चुके हैं ॥ २७३ ।। ध्यानी को उस प्रकार के पंचपरमेष्ठी-वाचक बीजाक्षर 'ह्रीं' से घूम की तरह पाप को नष्ट करना चाहिए । अर्थात्-आग्नेयी धारणा में 'ह्रीं' की रेफ से निकलती हुई धमशिखा के चिन्तन करने से घूम को तरह पाप का क्षय होता है तथा उस अमृतवर्ण पकार के ध्यान से बारम्बार अमृत ( मोक्षपद ) को ग्रहण करना चाहिए; क्योंकि श्रुत के अक्षर का ध्यान मोक्ष में कारण है ।। २७४ ।। ध्यान के आसनों का स्वरूप जिसमें दोनों पैर दोनों घुटनों से नीचे दोनों पिण्डलियों पर रखकर यथाविधि बैठा जाता है, उसे १. यो दुष्टाश्वः स्यात्सः प्रेरितस्तिष्ठति, खंचितश्चलति, तथेन्द्रियः खंचितो म तिलि किन्तु आत्मना ग्राह्मः पति भावः, पारिप्लवः चंचलः । २-४, सकलीकरणं यथा पूर्व कारीररक्षा क्रियते. पश्चादग्नितत्वेन दहनलक्षणं संहरण, चन्द्रादमृतमंडलादमृतवर्षेण सृष्टि । ५. सुरभिमुद्रा । *. 'धूमवनिवर्तत्' ग०। ६. 'ॐकारेण कारणेन' । टिका , 'गुम्बीजेन हकारण' इति पं० । ७-८. अमृतवर्णन पकारेण । ९-१०. सारथः पादौ तदा पभासन, सक्थ्योगपरि तदा वीरासन, पूंटी उपरि चूंटी तबा सुखासनं । तथा घोक्तममितगल्याचार्येण गधाया जङ्घया श्लेषो समभागे प्रकोतितम् । पद्मासनं सुखाधायि सुगाम्यं सकलंजनः ॥ १ ॥ बुधरुपर्यधोभागे जङ्घयोरभयोरपि । समस्तयोः कृर्व ज्ञेयं मर्यङ्कासनमासनम् ॥२॥ अर्कोपरि निक्षेपे पायोचिहिते सति । वीरासनं चिरं कर्तुं शक्यं वीरन कातरः ॥ ३ ॥

Loading...

Page Navigation
1 ... 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552 553 554 555 556 557 558 559 560 561 562 563 564 565