Book Title: Yashstilak Champoo Uttara Khand
Author(s): Somdevsuri, Sundarlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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अष्टम आश्वासः
"नामी चेतसि नासाधे दृष्टी भाले च सूर्धनि । विहारयेोहं सदा कासरोवरे ।।२६२ ।।
पाइपोनि जले तिष्ठेग्निथवेदनलाचिषि । मनोनयप्रयोगेण शस्त्रैरपि न वाध्यते ॥ २६३ ॥ जीवः शिवः शिवो जोवः *कि मेोऽस्त्यत्र कश्वन । पाशबद्धो भवेज्जीवः पाशमुक्तः शिवः पुनः ॥ २६४॥ साकारं वरं सर्वमनाकारं न दृश्यते । 'पक्षद्वयविनिर्मुक्तं कथं ध्यायन्ति योगिनः ॥ २६५ ॥ अस्यन्तं मलिनो देहः पुमानस्यन्तनिर्मलः । वेहावेनं पृथक्कृत्वा तस्मान्नित्यं विचिन्तयेत् ॥ २६६ ॥ तोपमध्ये यथा तं पृथग्भावेन तिष्ठति । तथा शरीरमध्येऽस्मिन्पुमानास्ते पृयक्तथा ॥ २६७॥ वप्नः सविश्वात्मायमुपायेन शरीरतः । पृथक्रियेत तत्थश्विरं संसर्गवानपि ॥ २६८||
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ध्यानी को नाभि में, हृदय में, नासिका के अग्र भाग में, नेत्रों में ललाट में, व शिर में और शरीररूपी सरोवर में अपने मनरूपो हंस का सदा विहार कराना चाहिए। अर्थात् – ये सब ध्यान लगाने के स्थान हैं इनमें से किसी भी एक स्थान पर मन को स्थिर करके ध्यान करना चाहिए || २६२ ॥ मन को स्थिरता से और प्राणायाम के अभ्यास से ध्यानी आकाश में विहार कर सकता है, जल में स्थिर रहता है और अग्नि की ज्वालाओं के मध्य स्थित हो सकता है, अधिक क्या शस्त्रों द्वारा भी वह पोड़ित नहीं किया जा सकता ॥ २६३ ॥ शङ्काकार — संसारी जीव शिव ( मुक्त ) है और शिव संसारी जीव है, इन दोनों में क्या कुछ भेद हैं ? क्योंकि जीवत्व की अपेक्षा एक हैं ।
उत्तर- — जो कर्म कर्म समूहरूपी बन्धन से बंधा हुआ है, वह संसारी जीव है और जो उससे छूट चुका है, वह शिव ( मुक्त ) है । अर्थात् - जीवात्मा और परमात्मा में शुद्धता और मशुद्धता का ही भेद है, अन्य कुछ मी भेद नहीं है, शुद्ध आत्मा को ही परमात्मा कहते हैं ॥ २६४ ॥
आत्मध्यान के विषय में प्रश्न व उत्तर
यदि समस्त वस्तु समूह साकार है ? तो वह सब विनाश-शील है और यदि निराकार है ? तो वह दिखाई नहीं देती किन्तु आत्मा तो न साकार है और न निराकार है तो योगी पुरुष उसका ध्यान कैसे करते हैं ? अभिप्राय यह है कि ध्यान करने योग्य दोनों वस्तुएं (अरहंत व सिद्ध ) पहले साकार शरीर - प्रमाण या ( पर्याय सहित ) होती हैं बाद में निराकार (पर्याय-रहित ) होती हैं; क्योंकि जिनागम में 'सायारमणायारा' ऐसा कथन है । अर्थात् — अर्हन्त अवस्था में साकार ( पर्याय सहित ) है और पश्चात् — सिद्ध अवस्था में निराकार - पर्याय रहित है || २६५ ॥ शरीर अत्यन्त मलिन है, क्योंकि सप्त धातुओं से निर्मित हुआ है और आत्मा अत्यन्त विशुद्ध है; क्योंकि सप्तधातु-रहित है, अतः ध्यानी की इसे शरीर से पृथक करके नित्यरूप से चिन्तवन
करना चाहिए || २६६ ॥
शरीर और आत्मा को भिन्नता में उदाहरणमाला - जैसे तेल, जल के मध्य रहकर भी जल से पृथक रहता है वैसे ही यह आत्मा भी शरीर में रहकर उससे पृथक रहता है ।। २६७ ।। यह आत्मा, जो कि चिरकाल से शरीर के साथ मंसगं ( संयोग सम्बन्ध ) रखने वाली भी है, तत्वज्ञानियों द्वारा ध्यान आदि १. तथा चाह शुभचन्द्राचार्य:--
'नेत्र श्रवणयुगले नासिकाग्रे ललाटे, वक्त्रे नाभौ शिरसि हृदये तालुनि भूयुगान्ते । ध्यानस्यानान्यमपतिभिः कीर्तितान्यत्र देई, तेष्वेकस्मिन् विगतविषयं चित्तमालम्बनीथम् ॥१३॥१
ज्ञानानंद पृ० ३०६ ।
२. गच्छेन्मुनिः । ३. प्राणायाम । ४. प्रश्ने । ५. विनाशि । ६. तेन कारणेन उभयमपि ध्येयं, पूर्व साकारं पर्यायसहितं पश्चात्रिराकार, 'सायारमणायारा' इनिनात् ।