Book Title: Yashstilak Champoo Uttara Khand
Author(s): Somdevsuri, Sundarlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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यशस्तिलक चम्पूकाव्ये
aurat aur aftefioविदालोक्य तं त्यजेत् । ज्ञानेन ज्ञेयमालोक्य पश्चात्तद् ज्ञानमुत्सृजेत् ॥१२५६|| सर्वपापाल वे क्षीण ध्याने भवति भावना पापोपहतबुद्धीनां ध्यानबार्ताऽपि दुर्लभा ॥ २५७ ॥
भाव क्षीरं न पुनः क्षीरतां व्रजेत् । तत्त्वज्ञान विशुद्धात्मा पुनः पापेन लिप्यते ॥ २५८ ॥ मन्दं मन्दं क्षिपेद्वायु' मन्वं मन्वं विनिक्षिपेत् । न क्वचिद्वायते वायुर्न च शीघ्रं प्रमुच्यते ॥ २५९ ॥ रूपं स्पर्श रसं गन्धंशयं चैव विदूरतः । आसन्नमिव गृलुम्ति विचित्रा योगिनां गतिः ॥ २६० ॥ बग्धे बोजे यचात्यन्तं प्रातुर्भवति नाङ्कुरः । कर्मबीजे तथा बन्धेन रोहति भवाङ्कुरः ॥ २६१||
नियम, आसन, प्राणायाम और प्रत्याहार ये पाँच योग (ध्यान) के बहिरङ्ग साधन है, क्योंकि ये चित्त को स्थिरता द्वारा परम्परा से ध्यान के उपकारक हैं। धारणा, ध्यान व समाधि ये तीन योग के अन्तरङ्ग कारण हैं, क्योंकि ये समाधि के स्वरूप को निष्पादन करते हैं । 'तत्त्रयमेकत्र संयमः (पात योगसूत्र ३३४) अर्थात् -- धारणा, ध्यान व समाधि इन दोनों को संयम यह पारिभाषिकी संज्ञा है ।
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इसप्रकार यह ध्यानरूपी वृक्ष चित्तरूपी क्षेत्र में यम व नियम से बीज प्राप्त करता हुआ आसन व प्राणायाम से अङ्कुरित होकर प्रत्याहार से कुसुमित होता है एवं धारणा, ध्यान व समाधिरूप अन्तरङ्ग साधनों से फलशाली होता है। प्रकरण में लौकिक ध्यान का निरूपण करते हुए आचार्य श्री ने प्राणायाम द्वारा नाभिस्य कमल आदि को संचालित करने एवं पार्थिवी, आग्नेयी आदि धारणाओं का भी निर्देश किया है, जिनका हम पूर्व में (श्लोक नं० ९२ के भावार्थ में ) विस्तृत विवेचन कर चुके हैं ।। २५५ ।।
जैसे दीपक को हस्तगत करनेवाला कोई मानव उसके द्वारा कोई बाह्य वस्तु को देखकर उस दोपक को त्याग देता है वैसे ही ज्ञानी पुरुष को भी ज्ञान के द्वारा जानने योग्य पदार्थ जानकर पश्चात् उस ज्ञान को त्याग देना चाहिए || २५६|| समस्त पाप कर्मों का आस्रव क्षीण हो जानेपर हो मानव में ध्यान करने की भावना प्रकट होतो है; क्योंकि पाप-संचय से नष्ट बुद्धिवाले मानवों के लिए तो ध्यान की चर्चा भी दुर्लभ है । अर्थात् - कपायों के उदय होनेपर ध्यान प्रकट नहीं होता ||२५७|| जो दूध दही हो चुका है, वह पुनः दूध नहीं होता वैसे ही जैसे तत्वज्ञान द्वारा विशुद्ध हुई आत्मावाला योगी भी पुनः पापों से लिप्त नहीं होता || २५८॥ प्राणायाम की विधि में ध्यानी को रेचकवायु ( प्राणायाम द्वारा शरीर से बाहर को जानेवाली वायु को धीरे-धीरे छोड़नी चाहिए एवं कुम्भकवायु ( प्राणायाम से शरीर के मध्य में प्रविष्ट की जानेवाली घटाकर वायु ) और पूरकवायु (प्राणायाम से पूर्ण शरीर में प्रविष्ट की जानेवालो वायु) को धीरे-धीरे यारीर में स्थापित करनी चाहिएअर्थात् खींचनी चाहिए | क्योंकि घ्यानी द्वारा प्राणायाम में न तो हठपूर्वक कुम्भक व पूरक वायु इकट्ठी धारण को जाती है और न हठपूर्वक रेचक वायु शीघ्र छोड़ी जाती है ।। २५९ ॥ योगियों का ज्ञान विचित्र होता है, क्योंकि वे लोग दूरवर्ती रूप, स्पर्श, रस, गन्ध व शब्दों को अपनी इन्द्रियों के समीपवर्ती सरीखे प्रत्यक्ष जान लेते हैं ।। २६० ॥ जिसप्रकार बोज के अत्यन्त जल जाने पर उससे अंकुर उत्पन्न नहीं होता उसीप्रकार कर्मरूपी बीज के भी अत्यन्त जल जाने पर उससे संसाररूपी अंकुर उत्पन्न नहीं होता || २६१ ॥
१. मुञ्चेत् । * तथा —
संस्पर्शनं संश्रवणं च दूरादास्वादनप्राणविलोकनानि । दिव्यान्मतिज्ञानबलाद् वहन्तः स्वस्तिः क्रियासुः परमर्षयो नः ॥३१॥ संस्कृत देवशास्त्रगुरुपूजा |
*. प्रस्तुत लेखमाला पातञ्जल योगदर्शन के आधार से गुम्फिल की गई है-सम्पादक