Book Title: Yashstilak Champoo Uttara Khand
Author(s): Somdevsuri, Sundarlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 471
________________ अष्टम आश्वासः पञ्चमूतिमसंबो' नासिकाने विचिन्तयन् । निधाय संगमे चेतो शिष्यशालमवाप्नुयात् ॥२५२।। यत्र यत्र "हषीकेऽस्मिन्नि वषीताचलं मनः । तत्र तत्र लभेतायं बाहामाह्माश्रयं सुखम् ॥२५॥ स्यूल सूक्ष्म द्विषा ध्यान सत्ययोजसमाधयम् । यान लभते काम द्वितीपेन परं पदम् ॥२५४|| "पद्यमुस्थापयेत्पूर्व नाडौं संगलयेत्ततः । मच्चतुष्टयं परचारप्रचारपतु पेससि ॥२५५।। नासिका के अग्रभाग में दष्टि स्थिर करके और मन को भ्रकूटियों के मध्य में स्थापित करके पंचपरमेष्ठी-वाचक और बीजाक्षर वाले 'ओं' मन्त्र का ध्यान करने वाला मानव दिव्य ज्ञान प्राप्त करता है ।। २५२॥ जिस जिस इन्द्रिय ( स्पांन-आदि } में यह अपना मन निश्चल करके आरोपित करता है, इसे उस उस इन्द्रिय में वाह्य पदार्थों के आश्रय से होनेवाला सुख प्राप्त होता है ।। २५३ ।। ध्यान के दो भेद है । स्थलध्यान व सूक्ष्मध्यान । स्थूलध्यान तत्व के आश्रय से प्रकट होता है और सूक्ष्मध्यान बीजाक्षर मन्त्र के आश्रय से होता है । स्थूलध्यान से अभिलषित वस्तु को प्राप्ति होती है और सूक्ष्म ध्यान से उत्तमपद ( मोक्ष ) प्राप्त होता है ॥ २५४ ।। लोकिक ध्यान की विधि--ध्यानी लौकिक ध्यान की सिद्धि के लिए नाभि में स्थित कमल को संचालित करे। पश्चात् नाड़ी ( कमल-नाल ) को संचालित करे । पुनः कमल-नाल के संचालन द्वारा कुम्भक, पूरक व रेचक वायुमों को हृदय के प्रति प्राप्त करावे । पश्चात् नासिका के मध्य में सूक्ष्म रूप से स्थित हुए पृथिवी, जल, तेज व वायुमण्डल को आत्मा में प्रचारित-योजित करें। भावार्थ-पातमजल दर्शन में योग ( ध्यान ) के आठ अङ्ग कहे हैं-यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान व समाधि । अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य व अपरिग्रह ये पांच यम हैं। शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान ये पाँच नियम हैं। पचासन, भद्रासन, वीरारान व स्वस्तिकासन-आदि दश प्रकार के आसन हैं । क्योंकि आसन को स्थिरता होने पर प्राणायाम प्रतिष्ठित होता है। श्वास ( नासापुट द्वारा बाह्य वायु का भीतर प्रवेश, जिसे पूरक कहते हैं और प्रश्वास-( नासापुट द्वारा कोष्ठय वायु का बाहर निकालना, जिसे रेचक कहा है ) काल में वायु की स्वाभाविक गति का निरोध ( रोकना ) प्राणायाम है, उसके तोन भेद हैं-पूरक, कुम्भक व रेचक । नासापुट द्वारा वाह्य वायु को शरीर के मध्य प्रविष्ट करके शरीर में पूरने को पूरक कहा है। उस पूरक वायु को स्थिर करके नाभिकमल में घट की तरह भरकर रोके रखने को कुम्भक कहा है। पश्चात् उस वायु को धीरे-धीरे वाहिर निकालने को रेचक कहते हैं। प्राणायाम से स्थिर हुआ चित्त, इन्द्रियों के विषयों से संयुक्त नहीं होता और ऐसा होने से । इन्द्रियाँ भी विषयों से संयुक्त नहीं होती। वे इन्द्रियाँ चित्त के स्वरूप को अनुकरण करनेवाली हो जाती हैं, इसी को प्रत्याहार कहते हैं । उक्त आठ योग ( ध्यान ) के साधनों में से यम, १. कारं। २. भूमध्ये । ३. स्पर्शनादौ । ४. आरोपयेत् । ५. नाभी स्वभावेन स्थितं कमलं चालयेत्, पश्चान्नालाकारेण नाडी--मालिका (कमलनालं) संचारमोत, नाइघा कृत्वा मरुतः हृदयं प्रति प्रापयेत्, पश्चान्मएच्चतुष्टप'-पृथ्वी अप्तेजोवायुमंडलानि नासिकामध्ये सूक्ष्माणि स्थितानि सन्ति तानि घेतसि आत्मविषये प्रचारपतु योजयतु ।

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