________________
४३४
यशस्तिलकचम्पूकाव्ये कुर्यात्तपो जपेन्मन्त्राग्नमस्येवापि वेयताः । सस्पृह यघि तच्चेतो रिक्तः सोऽमुत्र ह क ॥२४४॥ ध्यायेद्वा वाङमय ज्योतिर्मुलपचकवाचकम् । एतद्धि सर्वविद्यानामधिष्ठानमनश्वरम् ॥२४५।। ध्यायविन्यस्य "मेहेऽस्मिन्निदं मन्दरमुव्रपा । सर्वनामादिवर्णाहं वर्णानन्तं सनोजकम् ॥२४६।। तपःश्रुतविहीनोऽपि तजधाना विद्यमानस: । न आतु तमक्षा सृष्टा तत्तत्वाचिोप्रधीः ॥२४७॥ मषोत्य सारस्पाणि विधाय च तपः परम् । इमं मन्नं स्मरन्स्यन्ते मुनयोऽनन्यचेतसः ॥२४८॥ मन्त्रोऽयं स्मृसिषाराभिविपत्तं पस्याभिवति । तस्य सर्वे प्रशाम्यन्ति सोपवपासकः ॥२४९।। अपवित्रः पवित्रो वा सुस्थितो नुल्यतोऽपि पा । भवत्येतस्मृतिर्णन्तुरा पदं सर्वसंपदाम् ॥२५०।। उक्त लोकोसरं ध्यान किंघिल्लौकिकमुमपते । 'प्रकीगंकप्रपञ्चेन वृष्टावृष्टफलाभयम् ।। २५१॥
निष्काम होकर धर्माचरण की प्रेरणा धार्मिक पुरुप तप करे, मन्त्रों का जाप करे अथवा देवों को नमस्कार करे किन्तु यदि उसका चित्त लौकिक वस्तओं की लालसा-यक्त है सो वह इस लोक व परलोक में रिक्त फल-शन्य) रडत ध्यानो को अर्हन्त व सिद्ध-आदि पञ्चपरमेष्ठी को वाचक पञ्चनमस्कार मन्त्ररूपी ज्योति का एकाग्रचित्त होकर ध्यान करना चाहिए, क्योंकि यह पञ्चनमस्कार मन्त्ररूपी ज्योति निस्सन्देह समस्त विद्याओं को अविनाशी आधार है ॥ २४५ ।। जिसमें पञ्चनमस्कार मन्त्र के पाँचौ पदों के प्रथमाक्षर सन्निविष्ट है, और जो 'अहे रूप है तथा बोजासरवाला है, ऐसे 'अहं' इस मन्त्र को अपने मस्तक के ऊपर स्थापित करके मन्दर मुद्रा ( मस्तक के ऊपर दोनों हाथों से शिखराकार कुड्मल करना अथवा पंचमेरुमुद्रा) द्वारा ध्यान करना चाहिए, क्योंकि उस तत्व के ध्यान से व्याप्त चिलनाला मनुष्य मा मोर गुट से रहित होने पर भी कमी अज्ञानों का सृष्टा-उत्पादक-नहीं होता; क्योंकि उसकी बुद्धि उस तत्व की श्रद्धा से सदा प्रकाशित रहती है ॥ २४६-२४७ ।। योगी पुरुष समस्त शास्त्रों का अध्ययन करके व उत्कृष्ट तप करके समाधिमरण की वेला में एकाग्रचित्त होकर इसी मन्त्र का ध्यान करते हैं ॥ २४८ ॥ यह पञ्चनमस्कार मन्त्र जिस ध्यानी के चित्त को पंचपरमेष्ठो के गुण-स्मरणरूपी जलधाराओं से अभिषिक्त करता है, उसकी समस्त क्षुद्र उपद्रवरूपी धूलियां शान्त हो जाती हैं ॥ २४९ ॥ अपवित्र या पवित्र, निरोगी या रोगी जो प्राणी इस मन्त्र का स्मरण करता है, वह समस्त विभूतियों का स्थान हो जाता है ॥ २५० ॥ अलोकिक ध्यान के निरूपण के पश्चात् अबउसकी चूलिका-व्याख्याके कारण प्रत्यक्ष व परोक्षफल का आधारभूत लौकिक ध्यान संक्षेप रूप से कहा जाता
१. पंचनमल्कारमन्त्र । २ ललाटे। ३. अहं। ४. 'मस्तकोपरि हस्तद्वयम शिखराकारः कुड़मल: क्रियते स एवं
मन्दरः' इति टि० ख०, 'मन्दरमता पंचमेरुमद्रा' इति पं०। ५. 'पंचपदप्रथमाक्षरेण योग्य इति टिक ख०, 'सर्वनामा दियणहि-सर्ववर्णाः, नामवर्णाः, नामादिवर्णाः-अहंन्त । म सि आ। आदि अफार तदन्ते बीज इत्यादिकं'
सि पञ्जिकाकारः । ६. अह । तथा च व्युत्पत्तिः 'अर्ह' इति पदस्य 'अर्हन्' शब्दस्य 'अहं' इति गृह्यते । अशरीर अर, अर्य अर, अध्यापक , मुनि म् । पश्चादूपं रूपं प्रविष्टमिति वचनात् अकाररकाराश्च लुप्यन्ते । तदनन्तरं अहं इत्यत्र उच्चारणार्थ अकारः क्षिप्यते। मोज्नुस्वारः व्यञ्जने 'मही इति तत्त्वं निष्पन्नम् । तथा चाह शुभवन्द्राचार्य :-- अकारादि इकारान्तं रेफमध्यं सबिन्दुवाम् । तदेय परमं तत्वं यो जानाति स तत्ववित् ॥'
ज्ञानार्णव पृ० २९१ मे संकलित-सम्पादक ७. साक्षरं ध्यानमिदं । ८. सहित । ९. चूलियाव्याख्यया ।