________________
यशस्तिलकत्रम्पूकाव्ये जगतां कौमुबोचन' कामकल्पावमोहम् । पुणचिन्तामणिक्षेत्र कल्याणागममाकरम् ॥२३शा प्रणिवीमप्रकोपेषु साक्षाविव बातम् । प्यायेमगस्त्रयामिहन्तं सर्वतोमुखम् ॥२३२॥ 'आतुस्तस्मात्परं ब्रह्म तस्मान्न पर करें । मास्तस्माइयत्नाप्पा'खकालाः शितिधियः ।।२३।। यं यारध्यात्ममार्गषु भावमस्मयमत्सराः । तत्पाप बघरयन्तः स स तव सीयते ॥२३४।। अनुपायामिलोद्भात पुस्तकपा ममोडलम् । तद्भूमाव" भज्येस लीयमानं चिसदपि ॥२३५॥
'भ्योतिरेक परं यः "करीवाश्मसमित्समः । तस्मात्युपायविमूढा भ्रमन्ति भवकानने ।।२.३६।। मादि ) है, जो रत्नत्रयरूप है अथवा सत्ता, सुख और चैतन्य से विशिष्ट होने के कारण जो वयीरूप है, जो राग, द्वेष और मोह से मुक्त हैं अथवा अन्म, जरा व मरण से मुक्त है, जो तीन जगत के स्वामी हैं अथवा गृहस्थ की अपेक्षा से मति, श्रुत व अवधिज्ञान से युक्त हैं, जो कालत्रय में ध्याप्त हैं, जिनका तत्व उत्पाद, व्यय व ध्रौव्यात्मक है और जो तीनों लोकों के शिखर पर मणि-मरोखे विराजमान हैं ॥ २३०॥ जो जगत के लिए पूर्णिमासी के चन्द्र हैं, जो अभिलषित वस्तु देने के लिए कल्पवृक्ष हैं, जो गुणरूपी चिन्तामणि के स्थान है एवं जो कल्याण-प्राप्ति के लिए खानि है ।।२३१॥ जो ध्यानरूपी दीपकों के प्रकाश में साक्षात् चमकनेवाले और तीन लोकों से पूजनीय हैं एवं जिनका मुख समस्त दिशाओं में है ॥२३२॥ आचार्यों ने कहा है, कि उन अर्हन्त का ध्यान करने से परब्रह्म की प्राप्ति होती है और उनके ध्यान से इन्द्रपद हस्त-गत होता है एवं चक्रवर्ती की विभूतियाँ विना यत्न के प्राप्त हो जाती हैं ।।२३३॥ मान व ईर्षा से रहित पुरुष अध्यात्ममार्ग में अपने अन्तःकरण में मोक्षपद को प्राप्ति के लिए जो-जो भाव स्थापित करते हैं वह वह भाव उसो पद • में ही लोन होता जाता है अर्थात् --प्रकर्ष को प्राप्त हुआ वह भाव अर्हन्त पद की प्राप्ति का कारण होता है ॥२३४॥ पुरुषरूपी वृक्षों का मनरूपी पत्ता मोक्ष प्राप्ति में जो कारण नहीं है, ऐसे मिथ्यादर्शन-आदि रूपी बाय से सदा उद्घान्त (चन्चल व पक्षान्सर में भ्रान्ति-यक्त) बना रहता है किन्तु अहंन्तरूपीभमि में पहुंचकर वह मनरूपी पत्ता टूटकर उसी में चिरकाल के लिए लोन हो जाता है ।
भावार्थ-नाना प्रकार के सांसारिक प्रपञ्चों में फंसे रहने के कारण मानव का मन सदा चञ्चल व भ्रान्तियुक्त बना रहता है, किन्तु जब मनुष्य मोक्षमार्ग में प्रवृत्त होकर अपने मन को स्थिर करने में प्रयत्नशील होता है और अर्हन्तदेव का ध्यान करता है तो उसका मन उसी में लीन होकर उसे अर्हन्त बना देता है और तब मनरूपी पत्ता टूटकर गिर पड़ता है। क्योंकि अर्हन्त अवस्था में भावमन नहीं रहता ।।२३५।। ध्यान करने योग्य आत्मतत्त्वरूपी ज्योति ( अग्नि ) एक हो है परन्तु उसका आकार उस प्रकार पृथक है जिस प्रकार अग्नि एक होकर भी आकार से पृथक्-पृथक होती है । अर्थात्-जिस प्रकार अग्नि एक होकर शुष्क गोबर ( कण्डा ), पाषाण व लकड़ो के कारण कण्डे को अग्नि, पापाण-अग्नि व लकड़ी की अग्नि-आदि भिन्न-भिन्न आकार धारण करती है उसी प्रकार ध्यान करने योग्य आत्मा भी एक ही है, परन्तु स्त्री, पुरुष व नपुंसक के वेष में वह तीनरूप प्रतीत होती है, परन्तु ये अज्ञानी मानब उस आत्मा व अग्नि की प्राप्ति के उपाय की दिशा में मुढ़ हुए ( दिग्भ्रान्त गुण ) संसाररूपी वन में भ्रमण करते हैं। अभिप्राय यह है कि जैसे कण्डे से अग्नि का प्रकट होना चाठिन है वैसे ही स्त्री-शरीर में आत्मा का विकास होना कठिन है और जैसे पापाण से अग्नि शीघ्न प्रकट होती है वैसे ही पुरुष शरीर में आत्मा का विकास शीघ्र होता है एवं जैसे लकड़ी से अग्नि का प्रकट
१. ध्यान । २. अर्हतः । ३. प्राप्य । ४. पर्ण । ५. मोक्षे एव । ६. आत्मा अग्निश्च । आत्मा एक एवं आकारस्तु पृषक
स्त्री-मुन्नपुंसकभवात् । ७. मोमयेऽग्निः शीघ्र प्रकटो न स्यात्तथा स्त्रीषु मात्मा पारम्पर्यण प्रकटो भवति । पाषाणऽग्निः शोघ्र प्रकटः स्यात्तद्वत पुंस्यात्मा। समिधिविषये शोध प्रकटो न स्यातमन्न सके, प्रारमनोजनेश्च । ८. मोक्षोपाय ।