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अष्टम आश्वासः गुणः मुरभितात्मानमगन्धगुणसंगमम् । व्यतीतेन्द्रियसंबन्धमिनियावासकम् ।।२२५।। भवमानन्वतस्यानामम्मतृष्णानलाधिषाम् । पवनं दोषरेणनामग्निमेनोवनीवहाम् ॥२२६।। यजमान सनां व्योमालेपाविसंपदाम'। भान भव्यारविधामा मन्त्र मोक्षामृतधियाम ॥२७॥ 'असावकगुणं सर्वस्वं सर्वगुणभाजनः । स्वं सृष्टिः सर्वकामाना कामदृष्टिनिमीलनः ॥२२८।। खमुप्तवीपनिर्वाण प्राकृते वा त्वयि स्फठम | खप्तदीपनिर्वाणं "प्राकृतं स्याज्जगत्ब्रयम् ॥२२९॥ 'प्रयीमा 'नमोहक त्रयोमुक्त ० .१त्रयोपतिम् ।
१२त्रयीच्याप्त प्रयोतरत्र प्रयोचूडामणिस्थितम् १५ ॥२३०॥ हैं। जो शाश्वत सुखरूपी धान्य को उत्पत्ति के लिए पथियो, तृष्णारूपी अग्नि-ज्वालाओं के बुझाने के लिए जल, दोष ( क्षुवा-तृषा-आदि ) रूपी धूलि को उड़ाने के लिए वायु और पापरूपी वृक्षों को भस्म करने के लिए अग्नि हैं, जो प्रशस्त पदार्थों के दाता और समवसरण-आदि विभूतियों की प्राप्ति होने पर भी उनमें अनुरक्त न होने के कारण जो निलिप्त रहना-आदिरूपी सम्पत्तियों के लिए आकाश-सरीखे हैं, जो भव्यरूपी कमलों को विकसित करने के लिए सूर्य एवं मोक्षरूपी अमृत-लक्ष्मी के लिए चन्द्र हैं, समस्त वस्तु-समूह में तुम्हारे गुण ( अनन्त जानादि ) नहीं हैं, और तुम समस्त गुणों के पात्रभूत हो, एवं तुम समस्त मनोरथों को पूर्ण करता तथा कामको महिना संकोनान करने वाले हो अर्थात्--काम-विकारों को दूर करनेवाले हो ।। २२४-२२८ ।। वैशेषिक दर्शन में निर्वाण ( मुक्ति का स्वरूप आकाश-सरीखा शून्य माना है; क्योंकि उनके मत में मुक्त अवस्था में आत्मा के बुद्धि व सुख-आदि नो विशेष गुणों का अत्यन्त उच्छेद (नाश) हो जाता है । सांख्यदर्शन में निर्वाण का स्वरूप सोये हुए मनुष्य की तरह अर्थ-क्रिया-शून्य माना गया है। क्योंकि उन्होंने पुरुष के ऐसे चैतन्यस्वरूप की उपलब्धि ( प्राप्ति) को मुक्ति मानी है, जो कि पदार्थों के ज्ञानरूपी प्रक्रिया से शून्य है और वौद्धमत में दीपक के बुझने सरीखी आत्मा को निरन्वय हानि ( नाश ) को मुक्ति माना है, किन्तु अलोकिक अर्हन्त भगवान में उक्त तीन दर्शनकारों के निर्वाण अनेकान्त शैली के अनुसार प्रकटरूप से विद्यमान हैं। अर्थात-जैनदर्शन में मोक्ष में राग, द्वेष व मोह से रहित होने के कारण आत्मा की दिशुद्ध अवस्था को आकाश-सरीखी मानी है और ध्यान में लीन होने के कारण सुप्त मानी है और दीपक की तरह केवलज्ञान के द्वारा समस्त पदार्थों को प्रकाशित करनेवाली दीप सरीखी मानी है; अतः हे जिन ! उक्त तीनों दर्शनकारों की मुक्ति का स्वरूप हीन ( युक्तिविरुद्ध ) है ।। २२९ ।। जिनका मोक्षमार्ग रलत्रय (सम्यग्दर्शन१. दातारं उत्तमार्थानां । २. आदिशब्दान्महत्वादि। ३. यस्तु तत्सर्व बतायफगुणं त्वत्वरूप न भवति ।
४. वाञ्छितवस्तूनां । ५, संकोचनः । ६. खनिर्वाण नैयायिकानाम्, सुप्तनिर्वाणं सख्यिाना, दीपनिर्माणं बोद्धानाम, पसे रामपमोहरहितत्वादाकाशबत् शन्यं, योगनिद्रायां सुप्त, दीपवत केवलशानेन द्योतकम। टिल। 'खनिर्याण नैयायिकानमित्यादि टि. ख. वत्, 'स्खादिवनिर्वाणं वैशेषिकसांस्यवाद्वानां शानाधभावचतन्यमात्रान्वयविशेषविनाशाम्पुपगमात् । *, अलौकिक निश्चितं त्वयि विपये भवति' इति टि० घ० च० । 'खयत् निर्वाणं वैशेषिकाया ज्ञानाचमाबाम्युपगमात्, सुप्तवनिर्वाणं सांग्ल्यानां नेतन्यमात्राभ्युपगमात्, प्रदीपग्निर्वाण बौद्धानां निरन्वयविनाशाम्युपगमात् । इति पञ्जिकाकार: प्राह । ५. हीनं। ८. रश्न अयमार्ग ( रत्नत्रयं मागों यस्य )।
९. 'रत्नत्रय, सत्तासूखचैतन्यरूप वा। टिस० । 'रत्नत्रयरूप' टि. घ. न.पं.च10. 'जातिजरामरणमक्त' टिप. पं० न । 'रागद्वेषमोह' टि० त० । ११. 'जगत्त्रयपति' इति पं०, 'मतिथुसावधित्रयं गृहस्थापदाया' टि० ख०। १२. कालत्रयठ्याप्तं ( अतीसानागतवर्तमानत्रयी )। १३. राग, द्वेष, मोह, म्बर्गमर्यपाताल, गहस्थापेक्षया मतियतावविश्यं । १४. त्रैलोक्यशिखायां मणिवत स्थितम् ।