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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये
तत्र सुखासनस्येदं लक्षणम्गुल्फीत्तानकराजगुष्ठरेखारोमालिनामिकाः । समवृष्टिः समाः कुन्निातिस्तन्यो न वामनः ॥२७॥
तालत्रिभागमध्यावनिः स्थिरशीशिरोऽबर'। समनिष्पन्वपाण्यं प्रजानुहस्तलोचनः ॥२७७॥ न खात्कृतिनं कण्डतिनोंष्ठभक्तिन" कम्पित्तिः । न पर्वगणिति: कार्या नोक्तिरन्दोलितिः स्मितिः ।।२७८॥ में कुर्याद्गुरवृक्षपातं नैव "केकरवीक्षणम् । न स्पन्वं पश्ममालानां तिष्ठेन्नासाशनः ।।२७९|| ‘विक्षेपाक्षेपसंमोहरीतहिते इति । सम्पतत्त्वे करस्योऽयमशेषो ध्यानजो विधिः ॥२८॥ इस्युपासकाध्ययने ध्यानविधिर्नामकोनचत्वारिंशः कल्पः । यस्या: "पवयमलंकृतियुग्मयो सोकत्रयाम्बुजसरः विहारहारि । तां वाग्विलासवसति सलिलेन वा सेवे १०कवितामण्डनकल्पवल्लीम् ॥२८१।। ( इति तोयं ) यामन्तरेण सकलार्थसमर्थतोऽपि बोषोऽयकेशितरुवन्न १२फलापिसेव्यः ।। सोऽश्यरूपवेपि३ १ सयानुगतस्त्रिलोक्या सेव्यः १० सुररिव तां प्रयजेय गन्धः ।।२८२॥ ( इति गन्धम् ।)
पनासन कहते हैं । जिसमें दोनों पैर दोनों घुटनों के कार के हिस्से पर रखकर बैठा जाता है, उसे वीरासन कहते हैं और जिसमें पैरों की गाँठ बराबर में रहती हैं, उसे सुखासन कहते हैं ॥ २७५ ॥
गृहस्थों के घ्यानोपयोगी सुखासन का स्वरूप बताते हैं-पैरों की गाठों पर बायों हथेली के ऊपर दाहनी हथेली को सीधा रखें। अगठों की रेखा, नाभि से निकल कर ऊपर को जानेवालो रोमावली और नासिका एक सीध में हों। दृष्टि सम हो। शरीर न एकदम तना हुआ हो और न एकदम झुका हुआ हो । खङ्गासन अवस्था में दोनों चरणों के बीच में चार अंगुल का अन्तर होना चाहिए। मस्तक और ग्रीथा स्थिर हो । एड़ो, घुटने, ध्रुकुटि, हाथ और नेत्र समानरूप से निश्चल हों। न खाँसे, न खुजाए । न ओष्ठ संचालित करे, न काँपे, न हस्त के पदों पर गिने, न बोले, न हिले-डुले, नमुस्कराए, न दुष्टि को दूर तक ले जाये और न कटाक्षों से देखे । नेत्रों को पलक-श्रेणी चंचल न करे । एवं नासिका के अग्रभाग में अपनी दृष्टि स्थिर रखे।
जब योगी का मन ऐसा होता है, जो अस्थिरचित्तपना, आक्षेप ( लप, स्वाध्याय व ध्यान में चित्त को कुछ विचलित करना), संमोह ( अज्ञान-अतत्व में तत्व का आग्रह या परमत-भ्रान्ति ) व दुरोहित दुरभिलाषा ) से रहित होता है तब उसके विशुद्ध मन में यह समस्त ध्यान-विधि हस्त-गत-सुलभ होती है ।। २७६-२८०॥
इसप्रकार उपासकाध्ययन में ध्यानविधि नामक उनतालीसवां कल्प समाप्त हुआ।
जिसके स्यादस्ति व स्यान्नास्ति-आदि अनेकान्त-वाचक शब्द व धातुरूप दोनों पद ( चरण ) शब्दालंकार व अर्थालङ्कार के योग्य हैं और जो तोनों लोकरूपी कमल-सरोवर में कीड़ा करने से मनोश है एवं जो कविरूपी कल्पवृक्षों को विभूषित करने के लिए कल्पलता-गरीखी है ऐसी स्याद्वादवाणी की लीलावाली सरस्वती देवी को मैं जल से पूजता है 11 २८१ ॥ मैं ऐसी स्याद्वाद वाणी को गत्य से पूजता हूँ जिसके विना समस्त पदार्थो को प्रतिपादन करनेवाला भी ज्ञान उसप्रकार फलार्थी ( स्वर्ग व मोक्षफल के इच्छुक ) पुरुषों द्वारा
१. चतुःकर पार्श्वनाथवत् । २. दिसस्तेस्तुतीयभागश्चतुरङ्गालः। ३. ग्रीषा । ४. स्वर्जनम् । ५. पृथक्करणं ।
६. कम्पनम् । ७. कटाक्ष । ८. श्रा-ईषत् । ९. शब्दालंकारः अर्थालङ्कारश्च । १०. कधिरेव कल्पतरुस्तस्यासंकरणे। ११. परिज्ञानं । १२. 'चंध्यवृक्षवत्' टि. ल., 'अबकेदो बन्ध्यः ' इति पं०। १३. नरः। १४. पाण्या। १५. 'सुरतुः मुरद्रम.' यश पं0 I *. रूपकालंकारः ।