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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये
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"वक्षुः परं करणकन्दररितेऽयं मोहान्धकारविद्युतौ परमः प्रकाशः । तखाम गामिवीक्षणाश्नदीपस्त्वं सेव्य से विह देवि जनेन धूपैः ॥ २८७ ॥ चिन्तामणित्रिविधेनुसुरद्रुमाद्याः पुंसां मनोरथपवप्रथितप्रभावाः । भावा भवन्ति नियतं तव देवि सम्यक्सेदाविधंस्तदिदमस्तु मुद्दे फलं से || २८८ ||
( इति फलम् }
कमल मौक्तिककूलमणिजालना मरणार्थः । श्रराष्यामि देवों सरस्वती सकलमङ्गलंभविः ।। २८९ ।। स्याद्वावभूषरभवा मुनिमाननीया बेबंरनन्यशरणः समुपासनीया । स्वान्ताश्रिताखिलकलङ्कहरप्रवाहा वागापगास्तु मम बोधगजावगाहा ॥ २९० ॥ "मूर्धाभिषिक्तोऽभिषवाजिनानामच्यऽचं नात्संस्तव नास्तबार्हः ।
पीपानविधेवाध्यः श्रुताश्रितषीः श्रुतसेवनाच्च ॥ २९१ ॥
दृष्टवं जिन सेवितोऽसि नितरां "भावैरमन्याथमं । स्निग्धस्त्वं न सथापि यत्समविधि भक्तं विरपि च ।। मतः पुनरेतदीवा भवति प्रेमप्रकृष्टं ततः । कि भाषे परमत्र यामि मषतो भूयात्पुनदर्शनम् ।।२९२ ॥
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( इति धूपम् )
करने
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मैं आपकी पूजा करता है, क्योंकि प्रयोजनार्थी प्रयोग दीप अर्पित करता हूँ ॥ २८६ ॥ हे देवि! तुम इन्द्रियरूपी गुफाओं से नेत्र हो, अर्थात् - आपके प्रसाद से इन्द्रियों के अगोचर पदार्थ जाने जा अन्धकार के स्फेटन - विध्वंस करने के लिए तुम उत्कृष्ट प्रकाश हो तथा मोक्षस्थान में जानेवाले मार्ग के दर्शन में रत्नमयी दीपक हो इसलिए लोग धूप से तुम्हारी पूजा करते हैं " " ॥२८७॥ हे देवि ! आपकी विधिपूर्वक सेवा करने से चिन्तामणि, कामधेनु व कल्पवृक्ष आदि पदार्थ, जिनका प्रभाव प्राणियों की इच्छा पूर्ति के विपय में प्रसिद्ध है, नियम से प्राप्त होते हैं। इसलिए यह फल तेरी प्रसन्नता के लिए हो || २८८ || में सुवर्ण कमल, मोती समूह, रेशमी वस्त्र, मणि-समूह और चमरों की बहुलतावाली समस्त माङ्गलिक वस्तुओं से सरस्वती देवी की आराधना (पूजा) करता हूँ ||२८९||
का प्रोरेषा जय में तुम्हें वर्ती पदार्थों को देखने के लिए उत्कृष्ट सकते हैं; और प्राणियों के अज्ञानरूपी
ऐसी वाणीरूपी नदी मेरे ज्ञानरूपी हाथी का प्रवेश करानेवाली हो, जो कि स्याद्वादरूपी पर्वत से उत्पन्न हुई है, जो मुनियों द्वारा सन्माननीय है, जो अन्य की शरण में न जानेवाले देवों द्वारा सम्यक्रूप से उपासनीय है, एवं जिसका प्रवाह प्राणियों के मन में स्थित हुए समस्त कर्मरूपी कलङ्क को नष्ट करनेवाला है ||२९० || जिनेन्द्र भगवान् का अभिषेक करने से भक्त पुरुष मस्तक पर अभिषेक किया हुआ ( राजा ) होता है, पूजा करने से पूजनीय होता है, स्तुति करने से स्तुति के योग्य होता है एवं जप करने से जप-योग्य होता है एवं ध्यान - fafe से बाधाओं से रहित होता है तथा श्रुत की आराधना से बहुत विद्वत्तारूपी लक्ष्मीवाला होता है।। २९१ ।। हे जिनेन्द्र ! मैंने तुम्हारा दर्शन किया और जिनका अन्य आश्रय नहीं है, ऐसे भावों ( आठ द्रव्यों) से तुम्हारी विशेष पूजा को तो भी राग, द्वेष से रहित होने के कारण तुम मुझ से स्नेह-रहित हो क्योंकि तुम भक्त व विरक्त पुरुष में समता-युक्त ( मध्यस्थ - राग-द्वेष-रहित ) हो, अर्थात्-तुम भक्त से राग और विरक्त से द्वेष नहीं करते। फिर भी मेरा यह चित्त आपके प्रति प्रेम से भरा है। अधिक क्या कहूँ अब में जाता हूँ । मुझे आपका पुनः दर्शन प्राप्त हो ।। २९२०
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१- २, करणान्येव कन्दराणि गुफास्तेषां कन्दराणां हरे पदार्थ त्वं सरस्वती चक्षुः । ३. स्फेटने । ४. सुवर्ण । ५. राजा भवति । ६. जप्यः । ७. वाधारहितो भवति । ८. पदार्थ अष्टप्रकार पूजन: 1 ९. समतायुक्तः मध्यस्थः । १०. विरोधाभासालंकारः । ११. रूपकालंकारः । १२. रूपकालंकारः ।