Book Title: Yashstilak Champoo Uttara Khand
Author(s): Somdevsuri, Sundarlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 474
________________ ४३८ समापूजा 'पुष्पामोदी तरुच्छाये यतत्सकलनिष्कले । ततो वेहवेहस्थौ यद्वा सपनविम्यात् ।।२६९॥ एकरसम्मं नवद्वारं पञ्च "पन्श्वसनाधितम् । 'अनेककसमेव शरीरं योगिता गृहम् ।२७०।। उपायों से वेसी शरीर से पृथक् की जाती है जैसे घृत, जो कि दही के साथ चिरकालीन संसर्ग रखनेवाला है, मन्थन-आदि उपाय द्वारा दही से पृथक् कर दिया जाता है ।। २६८॥ अथवा जैसे पुष्प साकार है, किन्तु उमको गन्ध निराकार है या वृक्ष साकार है और उसकी छाया निराकार है अथवा मुख साकार है और दर्पणगत सम्पूर्ण व असम्पूर्ण मुख का प्रतिबिम्ब निराकार है वैसे ही शरीर साकार है और उसमें स्थित हुई आत्मा निराकार है ।। २६२ ।। भावार्थ-यहाँपर किसी ने शङ्का ( प्रश्न ) उपस्थित को–'जो वस्तु साकार । अवयव-विशिष्ट) है, वह विनाशशील होती है, जैसे घट व पट-आदि, और जो वस्तु निराकार ( निरवयद-अवयव-रहित ) है, वह दृष्टिगोचर नहीं होती, जैसे आकाश । परन्तु ध्यान करने योग्य आत्मद्रव्य जय साकार ( सावयव ) नहीं है, क्योंकि वह नित्य (सकलकाल-कलाब्यापी-शाश्वत रहनेवाला) व अनाद्यनन्त है। इसी तर निराकार है, क्योंकि स्वसंवेदन प्रत्यक्ष द्वारा प्रतीत होती है, तब योगी पुरुष उमका ध्यान कैसे कर सकते हैं ?' इस शङ्का का समाधान करते हुए टिप्पणीकार ने कहा है-'ध्यान करने योग्य दोनों पदार्थ ( अर्हन्त व सिद्ध) पूर्व में ( जीवन्मुक्त अवस्था-अर्हन्त-अवस्था में ) साकार ( पर्याय-सहित---शरीरपरिमाण ) होते हैं और पश्चात् सिद्ध अवस्था में निराकार ( पर्याय-रहित ) होते हैं । ग्रन्थकार आचार्यश्री ने उक्त शक्षा के समाधान करने के लिए दृष्टान्तमाला उपस्थित की है। इसके पूर्व उन्होंने सप्तधातुमय शरीर को मलिनता और आत्मा को अत्यन्त विशुद्धता निर्देश करके आत्मद्रव्य को शरीर से पृथक और नित्य ( शाश्वत रहनेवाला अनाद्यनन्त ) चिन्तवन करने के लिए कहा, इसके बाद कहा है, कि संसार अवस्था में आत्मा, शरीर में रहकर भी उससे वैसा पृथक् ( भिन्न ) है जैसे जल में स्थित हुआ तैल, जल से पृथक् होता है। पुनः घृत का दृष्टान्त देकर समझाया कि जिसप्रकार दही के साथ चिरकालीन संसर्ग रखनेवाला घी, मन्थन क्रिया द्वारा दही से पृथक् ( जुदा ) कर लिया जाता है उसीप्रकार चिरकाल से शरीर के साथ संयोगसंबंध रखनेवाली आत्मा भी तत्ववेत्ताओं द्वारा ध्यान-आदि उपायों से शरीर से पृथक् की जाती है । इसके बाद शङ्काकार को शङ्का के समाधान करने के लिए आचार्यश्री ने शरीर को साकार और आत्मा को निराकार सिद्ध करने के लिए तीन मनोज्ञ दृष्टान्त दिये हैं-१. पुष्ण और उसकी सुगन्धि, २. वृक्ष और उसकी छाया एवं ३. मुख और दर्पण-गत सम्पूर्ण व असम्पूर्ण मुख का प्रतिबिम्ब । अर्थात्-जैसे पुष्प, वृक्ष ब मुख, साकार हैं वैसे ही शरीर भी साकार ( अवयव-विशिष्ट ) है और जैसे पुष्प की सुगन्धि, वृक्ष की छाया और दर्पण-गत मुख का प्रतिविम्व निराकार हैं वैसे ही आत्मा भी निराकार-निरचयव-है। निष्कर्ष-आत्मा में शरीर को तरह अवयव नहीं हैं और न वह कारणसामग्री से घट-पटादि की तरह उत्पन्न होता है, अतः निराकार है और इसीलिए वह नष्ट भी नहीं होता, और शरीर-परिमाण होने से सर्वथा निराकार न होने के कारण स्वसंवेदन प्रत्यक्ष से दृष्टिगोचर भी होता है। यह शरीर ही योगियों का गृह है, जो कि एक आयुरूपी खम्भे पर ठहरा हुआ है, और जिसमें नो १. पुष्पं साकारं, परिमल: निराकारः। २. आदर्श सकलनिष्कलमुखवात् । ३, 'आयुषा घृतम्' टि० ख० । 'एकस्तम्भ भायु त्' इति पक्षिकायां । ४. पंचेन्द्रियाणि । ५. 'मनुष्य' टि. स., "पंचजनाः मनुष्यास्तराधितं' पं० । ६. 'नाभिकमलादि' टि० ख०, बनेकाक्षं हन्नाभिब्रह्मरन्ध्राविभेदेन ।

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