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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये १ अद्वैत तत्त्वं वदति कोपि मुखिया षियमातनुते न सोऽपि । यत्पनहेतुवष्टान्तवचनसंस्थाः कुतोऽत्र शिवशर्मसदन १२८।। "हेताबमेकधर्मप्रविशत्याति जिनेश्वरतरसिद्धि- ।
'मन्यापुन रखिलमतिय्यतोतमुद्राति सर्व मुलनयनिकेत ॥१२९॥ पांच प्रकार का सविकल्पक ज्ञान अपने प्रमाण स्वरूप से भिन्न (संदिग्ध ) है। इसलिए हे भगवन् ! जब बौद्धों द्वारा कहे हुए प्रमाणतत्त्व या वचन जीवादि वस्तु का स्पर्श नहीं करते तव बौद्धानुयायो आत्महित किस प्रकार कहते हैं ?
भावार्थ-बौद्धों ने कहा है, कि इन्द्रिय-जनित निर्विकल्पक प्रत्यक्ष सत्य ( प्रमाण । है। क्योंकि वह बाह्मण-आदि को कल्पना से शून्य है और सविकल्पक ज्ञान भ्रम रूप है, क्योंकि उसमें कल्पितरूप से वस्तु प्रतीत होती है, जिससे सभी को ऐकमत्य नहीं होता | इस प्रकार बौद्ध दर्शन में जब प्रमाणतत्व वस्तु निश्चायक नहीं है तब वहाँ आत्म-हित कैसे संभव हो सकता है? || १२७ ।।
ज्ञानाद्वैतवादी योगाचार ( बौद्ध विशेष ) मत-समीक्षा हे मोक्ष-सुख के गृह प्रभो ! जो कोई (ज्ञानाद्वैतवादी योगाचार ) भी अद्वैत तत्व (क्षणिक ज्ञानमात्र ) को कहता है । अर्थात्-जो समस्त चराचर जगत को भ्रमरूप मानकर केवल क्षणिक ज्ञान परमाणु-पुञ्जरूप तत्व मानता है, वह भी विद्वानों को बुद्धि को प्रभावित नहीं कर सकता; क्योंकि इस अद्वैत तत्व में प्रतिज्ञा, हेतु व उदाहरण को स्थिति किस प्रकार संघटित हो सकती है ?
भावार्थ-'रागादि से भिन्न शुद्ध जीवतत्व नहीं है, जिस प्रकार अङ्गार से कृष्णता पृथक् नहीं है । प्रस्तुत वादी की यह मान्यता अयुक्त है, क्योंकि प्रतिवादी ( जैन ) द्वारा स्वीकार किये हुए निम्नप्रकार पक्ष, हेतु व उदाहरण वर्तमान हैं। 'रागादि से भिन्न शुद्ध जीवतत्व है' यह पक्ष या प्रतिज्ञा हुई, क्योंकि परमसमाधिस्य महापुरुषों द्वारा शरीर-परिमाण, रागादि से भिन्न, चिदानन्दैक स्वभाव वाले शुद्ध जीवतत्व की उपलब्धि देखी जाती है। यह हेतु ( युक्ति ) हुआ। 'कालिकास्वरूपस्वर्णवत्' अर्थात्-जिस प्रकार किट्ट कालिका से पृथक् शुद्ध सुवर्ण उपलब्ध है, यह दृष्टान्त-वचन ( उदाहरण ) हुआ । इस प्रकार प्रतिपक्ष-हेतु-उदाहरण समझना चाहिए ।। १२८॥
अति की सिद्धि के लिए हेतु को मान लेने से उसके साथ में हेतु के पक्षधर्मत्व, सपक्षसत्व-आदि १. ज्ञानमात्रमेकमेव । २. बौद्धविशेषः । ३. चमत्कारं । हे. 'हेतोरवंतसिद्धिश्चंद ऐनं स्पाखेनुसाध्ययीः । हेतुना चेट् विना सिद्विवेत दाङ्मावतो न किम् ॥ २६ ॥-आप्तमीमांसा ।
४. 'अङ्गारात् काण्यवत् रागादिभ्यो भिन्नो जीवो नास्ति' इति यद् भणितं तदयुक्त कथमिति चेत्-'रागादिभ्यो भिन्नः शुद्धजीवोऽस्ति इति पक्ष: आस्था सन्धा-प्रविज्ञा इत्यनान्तरं, परमसमाधिस्यपुरुषः पारीरप्रमाणरागादिम्यो मित्रस्य विद्यानन्दकस्वभावदोद्धजीवस्योपलब्धेरिति हेतुतः, कालिकास्वरूपात्सुवर्णवदिति दृष्टान्तः, इति प्रतिपटहेतुदृष्टान्तवचनानि ज्ञातव्यानि । ५. कारणे कथिते सति । ६, पक्षाधर्मत्वं सपक्षे सत्वादिका । ७. अनेकपदार्थस्वभावसिद्धि कषयति । ८. दृष्टान्त ववः । ५. सर्वमतरहितं कस्यापि मतल्याधीनं न दृष्टान्त दष्टान्ताः सन्त्यसंख्येयाः इत्यादि पूर्वोक्त। १०. है अनेकान्तननिकेत । +. तदुक्तं कल्पनापोठमभ्रान्त प्रत्यक्ष निर्विकल्पकम् । विकल्पो बस्तुनिर्भासाघसंवादादुपप्लकः ॥ १ ॥
सर्वदर्शन संग्रह पृ. ४४ से संकलित-सम्पादक