________________
४२४
यशस्तिलकचम्पूकाव्ये लाभेला बने वासे मिमित्र प्रियेऽप्रिये । सुखे से समानामा भलवधानीः सदा ॥१८७॥ परे ब्रह्मण्यतचानो 'तिमंत्री चया वितः । अन्यत्र सूनसावाश्यानित्यं "वाघमी भवेस् ॥१८८॥
संयोगे 'विप्रलम्भे व निवाने १५ परिवने । १२हिसायामनसे स्तेये भोगरक्षासु तत्परे ॥१८९॥ ध्यान के अङ्गों) से घिरकार का करताना पदाति प्राप करता है, जिस प्रकार रोगी शरीर में संचित किये हुए दोषों (वात, पित्त व कफ की विषमता से उत्पन्न हुए रोगों ) को यातना ( लङ्घन-आदि) व योगकर्म ( औषधि के प्रयोग) द्वारा चिरकाल से क्षय करता हुआ कल्पता (निरोगता) प्राप्त करता है।
भावार्थ- यदि आपके यहां आत्मज्ञानी योगी पुरुष प्राणायाम को विधि से उत्पन्न हुई शारीरिक तोत्रवेदना व योगकर्मों ( ध्यानादि क्रियाकाण्डों ) से पूर्व में बाँधे हुए अज्ञानादि पाप कर्मों को क्षय करता हुआ चिरकाल में मुक्ति-लाभ करता है तो वह रोगो-सरीखा ही है, क्योंकि रोगी भी प्रकृति-विरुद्ध आहार-विहार द्वारा संचित हुए वात, पित्त व कफ की विषमता से उत्पन्न होनेवाले रोगों को लङ्घन व औषधि के प्रयोग से समय पाकर क्षीण करता हुआ निरोगता प्राप्त करता है ।।.१८६ ॥
धर्मध्यान में बुद्धि रखनेवाले को सदा लाभ व हानि में, धन और गह में, मित्र व यात्रु में, मनोज व अमनोज्ञ में एवं सुख व दुःख में समभाव रखनेवाला होना चाहिए ॥ १८७ ।। धर्मध्यानी को परमात्मा में लवलीन होते हुए द्वादशाङ्ग श्रुत का अभ्यासी एवं धति ( प्रिय-अप्रिय वस्तु को प्राप्ति होने पर चित्त को विकृत न करना ), मंत्री ( समस्त प्राणियों से द्रोह न करने की बुद्धि) और दया ( अपने समान दूसरे प्राणियों के हित करने को बुद्धि) से युक्त होते हुए सदा सत्य वचन ही बोलना चाहिए अथवा मौन पूर्वक रहना चाहिए ।। १८८॥
आते व रौद्रयान का स्वरूप और उनके त्यागने का उपदेश विवेकी को आतं व रौद्रध्यान त्याग देना चाहिए, जो कि संयोग, वियोग, निदान, वेदना, हिंसा, झूठ, चोरी व भोगों की रक्षा में तत्परता से उत्पन्न होते हैं और जीव को अनन्त संसार में भ्रमण लक्षणवाले पापरूपी रथ के मार्ग हैं और परिणाम में विशेष दुःख देनेवाले हैं।
भावार्थ-इनमें पहला आर्तध्यान चार प्रकार का है। अनिष्ट संयोगज, इष्टवियोगज, निदान व परिदेवनरूप । अनिष्ट वस्तुका संयोग हो जाने पर उससे छुटकारा पाने के लिए जो सदा अनेक प्रकार के उपायों १. बारमनि । २. प्रवचन सा अधीती। ३. प्रियाप्रियवस्तूपनिपाने चिसस्याविकृतितिः । ४. सर्वसत्वानभिदोह
बद्धिमत्रो। ५. आत्मवत परस्यापि हितोपादानवृत्तिर्दया । ६. विना। ७. सत्यं वदेत अथवा मौनो स्यात् । ८. संयोग इत्यादिना चविषमातव्यानमुपदिशति-तम गंचानामिन्द्रियाणां मनसाऽपिडितानामपभोक्तत्वेन स्वेषु विषयेयु प्रवृत्तिः संयोगः । २. 'वियोगे' टिक स., 'प्रीतिविषयस्य वस्तुनो देगकालाभ्यां विप्रकपात्मनो दौमनस्य विप्रलम्भः । १०. निजानधानमूल्येनानिमिपं मनुष्येष्वभिलषितवस्तुपरिपणनं निवान । ११. आगतयारिष्टानिष्टयोरवि. योगवियोगप्रार्थनमनागतयोरुत्पत्पनत्पत्तिप्रायनं वा परिदेवनं । तथा बाया-प्राजाने चहिते वियोगसंयोगबुदितिः स्यात् । विगमानामागमचिन्तनमहिने च तद्वं वार्स ।। १३ १२. हिसायामित्यादिना घविध रोद्रं समुपदियाति--हिंसादयः कविना स्वयमेव व्याख्याता:1 तथा चोक्त-स्वपरापायगी मावो रुम इत्युच्यसे बुधैः । तत्र यात तुर्य कर्म रौद्रं सन्तस्तदृचिरें ॥१॥ १३. पूर्वोक्त पदार्थ तत्परे तन्मयेने आलरोद्रध्याने ।