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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये
बिलोनाशय संबन्धः शान्त मारलस उचयः । देहातीतः परं षाम केवल्यं प्रतिपद्यते ॥ २०३ ॥ प्रमीणोपकर्माणं' जन्मबोधविवजितम् । सन्यात्मगुणमात्मानं मोक्षमाहुर्मनीषिणः ॥ २०४ ॥ | २ मार्ग सुत्रमनुप्रेक्षाः सप्तसत्त्वं जिनेश्वरम् । ध्यायेदागमचक्षुष्मान्प्र संस्थानपरायणः ॥ २०५ ॥ "जाने तत्वं यथेति " सवनयः । मुखेऽहं सर्वमारम्भमात्मन्यात्मानमावबे ॥ २०६॥ मनोभिसंपतेरात्मन्यात्मानमात्मना । यदा "सूते तदात्मानं लभते परमात्मना ।।२०७ || सकता है ऐसा चित्त में निश्चय करके ग्रन्थकार धर्मध्यान के बाद शुक्लध्यान का निरूपण करते हैं * ] शुक्लध्यान के चार भेद हैं- पृथक्त्व वितर्कवीचार, एकत्ववित्तकवीचार, सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति और समुच्छिन्नक्रियानिति । उनमें से पहला पृथक्त्ववित्तकवीचार विवजिताभेद है, अर्थात् एकत्व-रहित है - अर्थ ( द्रव्य व पर्याय ) व्यञ्जन ( द्रव्य-पर्याय को कथन करनेवाला वचन ) व योगान्तरों ( मनोयोग आदि ) में संक्रमण करता है । दूसरा एकत्ववितकवीचार भेद-विवर्जित है, अर्थात्-पृथक्त्व से रहित है; क्योंकि यह अर्थ व व्यञ्जन-आदि में संक्रमण नहीं करता । तीसरा सुक्ष्मक्रियाप्रतिपाति, जो कि सूक्ष्म क्रिया का अवलम्बन करनेवाला है और चौथा समुच्छिन्न क्रियानिवर्ति, जिसका लक्षण निष्क्रिय है, अर्थात् - समस्त योग रहित है । अर्थात् - योगी उक्त तीन प्रकार के शुक्लध्यान को ध्याता हुआ निष्क्रिय ध्यान को ध्याता है। ऐसे अयोग केवली भगवान् इस चौथे शुक्लध्यान से समस्त कर्मों का संबंध नष्ट करनेवाले होकर जिनका प्राणापान ( श्वासोच्छ्वास ) वायु का प्रचार रुक गया है और जो वर्तमान शरीर छोड़कर सर्वोत्कृष्ट मुक्तिपद प्राप्त करते हैं || २०२ - २०३ ॥
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मोक्ष का स्वरूप
विद्वानों ने ऐसी विशुद्ध आत्मा को मोक्ष कहा है, जिसने दोनों प्रकार के कर्म (घातिया व अघातिया ) नष्ट किये हैं व जो जन्म, जरा व मृत्यु आदि दोषों से रहित है एवं जिसने आत्मिक गुण ( अनन्तज्ञान आदि ) प्राप्त किये हैं ।। २०४ ॥
ध्यान करने योग्य वस्तु
धर्म- ध्यान में तत्पर हुए मानव को शास्त्ररूप चक्षु से युक्त होकर मोक्षमार्ग के सूत्र ( सम्यग्दर्शनज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्गः ) का ओर बारह भावनाओं का तथा मोक्षोपयोगी सात तत्वों का एवं वीतराग सर्वज्ञजिनेन्द्र भगवान् का ध्यान करना चाहिए ॥ २०५ ॥
धर्म यानी को क्या विचार करना चाहिए ?
में आगमानुसार तत्वों को जानता हूँ और एकाग्रचित्त होकर उनका श्रद्धान करता हूँ एवं समस्त आरम्भों को छोड़ता हूँ तथा आत्मा में आत्मा को स्थिर करता हूँ ।। २०६ ॥ संसारी यह आत्मा जब सम्यग्ज्ञान
१. वाति अघाति । २. रत्नत्रयलक्षणं । ३. ध्यानतत्परः । ४. अहं । ५. रोचे । ६. एकाग्रचितः ।
* तथा च पञ्जिकाकारः—
धर्मध्यानविधी सिद्धः शुक्लध्यानविधानभाक् । अतएवास्य भाषन्ले निर्देशं तदनन्तरम् ॥ १ ॥
इति चेतेसि निधाय धर्मध्यानानन्तरं चतुर्भदं शुक्लध्यानं भेदमित्यादिनोदाहरति । यगः पचिका से संकलित - सम्पादक ७. संसारी सन्नपि । ८ जनयति व्याग्रति वा ।
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