Book Title: Yashstilak Champoo Uttara Khand
Author(s): Somdevsuri, Sundarlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 457
________________ " नाभी ने ललाटे "अग्निमध्ये रौब मृत्युंजयं यवन्तेषु स सत्वं *. वायु को शरीर से बाहर निकालना ) को गतिविच्छेद लक्षणवाला प्राणायाम ) मुद्रा ( आसन, अर्थात् -- हस्त व पादादि का अवस्थान विशेषरूप पद्मासन, भद्रासन, वोरासन व स्वस्तिकासन आदि दश प्रकार का आसन ) व मण्डल ( त्रिकोण व चतुष्कोण व वृत्ताकार आदि आकार ) इन सबकी प्रेरणा की लीलाएँ ( कर्म ) बीजीकरणकर्म ( संप्रज्ञात समाधि - वाह्य पदार्थों की विषय करनेवाली अविद्या आदि वृत्तियों का निरोध) में और निजीकरण (असंप्रज्ञातसमाधि ) में कारण हैं । अभिप्राय यह है, कि आसन को स्थिरताआदि में प्रतिष्ठित हुमा प्राणायाम उत्कृष्ट तपरूप होकर संप्रज्ञात समाधि आदि में कारण होता है । इसी प्रकार वह प्राणायाम - विधि से निम्न प्रकार वोजीकरण कर्म ( संप्रज्ञातसमाधि ) को नाभि, नेत्र, ललाट ( मस्तक ), ब्रह्मग्रन्थि ( समस्त आतड़ियों का समूह ) व तालु, अग्नितत्ववाली नासिका, रवि ( दक्षिणनाड़ी ), चन्द्र ( बामनाड़ी), जननेन्द्रिय व हृदकर ( हृदयछिद्र के बिना भी उस काल में मेद सरीखी गाँठ हो जाती है ) इनके प्रमुख मार्ग द्वारा करता है और जब मरणवेला होती है तब मुक्ति की प्राप्ति के लिए निर्बीजीकरण कर्म (असंप्रज्ञात समाधि ) करता है जिससे वह मृत्यु से वञ्चित होता है, अर्थात् — उसका पश्चात् मरण नहीं होता क्योंकि प्रस्तुत तत्व ( निर्बीजीकरण ) निश्चय से मुक्ति का कारण है। अहो आश्चर्य की बात है क्योंकि यह अपने व दूसरों को ठगनेवाली नोति मूढ़ बुद्धिवालों की समझनी चाहिए । " अष्टम आश्वासः भावार्थ- पातञ्जल दर्शन में योग ( ध्यान ) के आठ अङ्ग कहे हैं - यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान व समाधि । अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य व अपरिग्रह ये पांच यम है "" शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान ये पाँच नियम हैं । १२ पद्मासन, भद्रासन, वोरासन व स्वस्तिकासनआदि दश प्रकार के आसन हैं। क्योंकि आसन की स्थिरता होनेपर प्राणायाम प्रतिष्ठित होता है। श्वास ( नासापुट द्वारा बाह्य वायु का भीतर प्रवेश, जिसे पूरक कहते हैं) और प्रश्वास - ( नासापुट द्वारा कोय वायु का बाहर निकालना, जिसे रेचक कहा है ) काल में वायु की स्वाभाविक गति का विरोध ( रोकना ) प्राणायाम है। उसके तीन भेद हैं- पूरक, कुम्भक व रेचक । "} व तालुनि । लूतासन्तों" बकुरें ।।१८१ ॥ किल मुक्तये । अहो मूढधियामेव नयः स्वपरवधनः ।। १८२ ।। १- २. नेत्रनाभिप्रमुख मार्गेण शुक्रनिष्कासनं कर्म मृत्युञ्जयं भवति साधनाम्यासेन' । विमद - अयं विषयः टिप्पणीकारण कुतः प्रास्त्रासू संकलितः ? इति न जानीयो वयं यतः पातञ्जलयोगदर्शने नास्ति । सम्पादक ३. निखिलान्त्रजाले ब्रह्मपन्थिदच्यते तत्रापि निर्दोजी करणं भवति । ४. नासिकायां अग्नितत्वं वर्तते । ५. दक्षिणनायां । ६. चन्द्रे वामनाइयां । ७. लूतावन्तो लिङ्गविषये । ८. हृदयछिद्रं विनापि तदाकाले मंदसदृशप्रन्यिः स्यात् । ९-१० यया मरणवेला वर्तते तदा निर्बीजीकरणं क्रियते तेन कर्मणा मृत्यो वंचिते सति पश्चात् कदापि मरणं न स्यादित्यर्थः । तथा चोक्तं पतञ्जलिता - यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयोवनानि योगस्येति ( पात० यो० सू० २।२९ ) ११. तथा चाह पतञ्जलिः अहिंसासत्यास्तेय ब्रह्मचर्यापरिश्रहा यमाः । १२. सन्तोषतपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः । १३. 1 ४२१ तस्मिन् सति श्वासप्रश्वासयोर्गतिविच्छेबः प्राणायामः "1 33 दास नाम वाह्यस्य वायोरन्त रानयनम् । प्रश्वासः पुनः कोमस्य बहिर्निःसारणम् ॥ ( पात० यो० सू० २।३० ) (पात०० सू० २१३२ ) ( पात० यो० सू० २०४९ )

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