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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये मङ्गुष्ठे मोक्षार्थी 'तन्या साधु बहिरिवं नयतु । इतरास्वगुलिषु पुनहिरग्लाहिकापेक्षरे ॥१४४।। बचमा वा मनसा वा कार्यों मापा समाहितस्वान्सः । दातगुणमा पुण्यं सहस्रसंख्यं द्वितीये तु॥१४५|| नियमितकरण प्रामः स्यामासनमानसप्रचारशः। पवनप्रयोपनिपूणः सम्यपिसद्धो भवेवया ॥१४॥ इममेव मन्त्रमन्ते पञ्चत्रिशत्प्रकारवर्णस्यम् । मुनयो जपन्ति विधिवत्परमपदावाप्तये निस्पम् ।।१४७!! मन्त्राणामखिलानामय मेकः कार्यकद भत्सिद्धः । अस्यैकदेशकार्य परे तु फुर्यन ते सर्वे ॥१४॥
कुर्यास्करयोया कनिष्ठिकान्सः प्रकारपुगलेन । तस्नु हृवाननमस्तककवचास्त्रविधिविधातव्यः ।।१४९।। का विवाद नहीं है ।। १४२ ॥ पद्मासन से बैठकर इन्द्रिय-समूह को चञ्चल न करके (निश्चल करते हुए) जपकर्ता को पुष्पों से या अङ्गुलियों के पर्वो से अथवा कमलगट्टों से या सुवर्ण के दानों से अथवा सूर्यकान्तमणि के दानों से पञ्च नमस्कार मन्त्र का जप करना चाहिए. ॥ १४३ ।।
मुक्तिथी के इच्छुक जपकर्ता को माला के लिए अंगूठा और उसके पास की तर्जनी अंगुली पर रखकर तर्जनी अंगुली से भलीभांति बाहर की ओर जप करना चाहिए और ऐहिक सुख की अपेक्षा करनेवाले जपकर्मा को रोष अंगुलियों ( मध्यमा व अनामिका) द्वारा बाहर व अन्दर की ओर जप करना चाहिए ।। १४४ ॥ ध्येय वस्तु में निश्चलीकृत मनवाले जपकर्ता द्वारा वचन से या केवल मन से पन्चनमस्कार मन्त्र का जप करना चाहिए
चानक जप में सौगुना और मानसिक जप में तो हजार गुना पुण्य होता है॥१४५ ।। ऐसा विवेकी जपकर्ता सर्वज्ञ होकर सिद्धपद प्राप्त करता है, जिसने समस्त इन्द्रिय-समूह को वश में किया है, जो एकान्तस्थान, आसन ( पद्मासन ब खड्डासन ), ओर मानस प्रचार ( मन को नाभि, नेत्र व ललाट-आदि में संचारित करना ) का शाता है, अर्थात्-जो अपनी मनोवृत्ति समस्त बाह्य विषयों से खींचकर आत्मस्वरूप में हो प्रवृत्त करता है, जो प्राणायाम विधि द्वारा वायु-तत्व के प्रयोग करने में निपुण है ।।
भावार्य जपकर्ता को सबसे पहले जितेन्द्रिय होना अत्यन्त आवश्यक व अनिवार्य है, अन्यथा उसका जप हस्ति-स्नान की तरह निष्फल है । इसी प्रकार उसे एकान्त स्थान में पद्मासन व खङ्गासन लगा कर एकाग्र चिसपूर्वक जप करते हुए प्राणायाम विधि द्वारा कुम्भक व पूरक-आदि वायुतत्व का यथाविधि उपयोग करने में चतुर होना चाहिए, क्योंकि विधि पूर्वक पंचनमस्कार मन्त्र का जपकर्ता सर्वज्ञ होकर सिद्धपद प्राप्त करता है। १४६ ।।
___ क्योंकि मुनिराज मोथा पद को प्राप्ति के लिए अन्त में इसी पेंतीम अक्षरोंवाले पञ्चनमस्कार मन्त्र को सदा विधि पूर्वक जपते हैं ॥ १४७ ।। यह अकेला ही सिद्ध किया हुआ होनेपर सब मन्त्रों का कार्य करता है. किन्तु दूसरे सब मन्त्र मिलकर भी इसका एक भाग भो कार्य नहीं करते ॥ १४८ ।।
[जप-प्रारम्भ करने से पूर्व सकलीकरण-विधान-]
दोनों हस्तों की अंगुलियों पर अंगूठे से लेकर कनिष्ठिका अंगुलि तक दो प्रकारसे मन्त्र का न्यास करना चाहिए। तदनन्तर हृदय, मुख व मस्तक-आदि का अङ्गन्यास करके जपकर्ता को निर्विघ्न इष्ट-सिद्धि के लिए सकलीकरण विधिरूपी कवच (बस्तर) व अस्त्र-धारण की विधि करनी चाहिए।
भावार्थ-जप करने से पूर्व अङ्ग-शुद्धि, न्यास व सकलीकरण विधि करनी चाहिए । अर्थात्-प्रतिष्ठा१. जाप्ये कसे प्रति इदं बहिवस्तु उच्चाटनीयं जपः प्रापयतु। २. समसामपव॑सि जप्यं त्रिवमर्षणे ।
३. मन्त्रस्य । ४. मो अरहताणमेतावन्माषेणापि । ५. मन्त्राः । ६. विधिपूर्वक अंगुलिरेखा । ७. एष विस्तारः सकलीकरणविधी मातस्यः।