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अष्टम आश्वास:
गगनं निशितविनयनीतिस्मृतगुणम्" । महोदारं सारं विनयानन्यविषये सतो पाचे मी चेडूर्यास भगवन्तयिविमुखः ॥ १३९ ॥ मनुजविविजलक्ष्मीलोचनालोकलीला चिरमिह चरितार्थास्त्वित्प्रसादात्प्रज्ञाताः ।
विषेहि ॥ १४० ॥
भिमिवानों स्वामिसेोत्सुकस्था सहबस लिखनायं प्राथमिश्रे इत्युपा साध्ययने स्तवनविधिर्नाम सप्तत्रिंशत्तमः कल्पः । सर्वाक्षर भामाक्षर मुख्याक्षराधेक वर्णविन्यासात् । निगिरन्ति जपं केचिदहं तु "सिद्धक्रमैरेव ।। १४१ ।। पातालसुरेषु सिशुक्रमस्य मन्त्रस्य । १२ अधिगाना सिद्धेः समवाये देवयात्रायाम् || १४२ ।। पुष्पे: पर्वभिरतुयी अस्वर्णा' 'कंकान्तरनिर्वा । निष्कम्पिसाक्षयलयः १७ पस्यो जपं कुर्यात् ॥ १४२॥ नमस्कार संबंधी व्यापार सुलभ है तब मुझ सरीखा विद्वान् मूक कैसे रहे? इसलिए मैंने कुछ कहा है । परन्तु मेरे द्वारा स्तवन करना शक्य नहीं है, अतः हे स्वामिन्! मैं आपको नमस्कार करता हूँ ।। १३८ ॥
हे भगवन् ! आप जगत् के नेत्र हैं, समस्त पदार्थों के ज्ञानरूपी तेज के स्थान हैं, महान हैं, समस्त सिद्धान्तों में आपके गुण स्मरण किये गए हैं, विनयशील मानवों के हृदय प्रमुदित करने के लिए महान् उदार हैं, अतः मैं आपसे याचना करता हूं, यदि आप याचकों से विमुख नहीं हैं ।। १३२ ।। भगवन् ! आपके प्रसाद से हम इस लोक में चिरकाल तक मानवीय लक्ष्मी व स्वलक्ष्मी के नेत्रों के दर्शन की शोभा प्राप्त करनेवाले होकर कृतार्थ हो चुके । अब तो 'छात्रमित्र' इस दूसरे नामवाले सोमदेवसूरि का यह हृदय प्रभु की सेवा के लिए उत्सुक है, इसलिए मन्त्र मेरे हृदय को अपने साथ निवास से सहित कीजिए— मेरे हृदय में निवास कीजिए ॥ १४० ॥1
इस प्रकार उपासकाध्ययन में स्तवन विधि नामक सैंतीस कल्प समाप्त हुआ । [ अब जप करने की विधि निरूपण कहते हैं - ]
जप-विधि
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कोई आचार्य ' णमो अरिहंताणं' आदि पूरे नमस्कार मन्त्र से जप करना कहते हैं । कोई अरहंत व सिद्धआदि पंच परमेष्ठी के वाचक नामाक्षरों से जप करना कहते हैं । कोई पंचपरमेष्ठी के वाचक 'असि मा उ सा इन मुख्य अक्षरों से जप करना कहते हैं। कोई 'ओ' अथवा 'अ' आदि एक अक्षर से जप करना कहते हैं, किन्तु मैं ( ग्रन्थकार ) तो अनादि सिद्ध पैंतीस अक्षरों वाले पञ्च नमस्कार मन्त्र से जप करना कहता हूँ ।। १४१ ॥ अधोलोक में ( भवनवासी व व्यन्तर देवों में ), मनुष्यों में, विद्याधरों में, वैमानिक देवों में जन-समाज में और तीर्थंकर - पूजा में सिद्धि दायक होने के कारण पंचनमस्कार मन्त्र का सर्वत्र विशेष आदर है, इसमें किसी प्रकार १. तेजसां पानं स्थानं । २. समयसिद्धान्ततिगुणं । ३. वभा । ४. सत्यार्थाः ।
५. सहनिवाससहितं मदीयं हृदयं कुरु' टि० ख० ।
'बसनं वसति सह वसत्या सनायं सहितं सहनसतिसनाथ' दि० च० । *. 'छात्रा एवं मित्राणि यस्य' दि० ख०, 'मयि सोमदेवे' टि० च० ।
'छात्र मित्रेति कवेरवेदक नाम ' इति पञ्जिकायां ।
६. णमो अरिहंताणमित्यादि पंचत्रिंशत् । ७. अरहंत १०. कथयन्ति । ११. अनादिसंसिद्ध पंचत्रिव दक्षः ।
सिद्ध इत्यादि । ८. असि या उसा । ९. कॅ अथवा अ । १२. अविप्रतिपत्ते आदरात्। * 'अविगानात् संसिद्धिः च० । १३. समाजे संभ्रमेलापकॆ । १४. वीर्यकरपूजायां । १५. कमल, काकड़ी । १६. सूर्यकान्त । १७. इन्द्रियसमूहः ।