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अष्टम आश्वासः
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ममुजत्वपूर्वनयनायकस्य भवतो भवतोऽपि गुणोत्तमस्य । पेषफलुधिषणा भवन्ति ते जर मौक्तिकमपि *हरन्ति ॥१३॥ माप्तेषु बहुवं यः सहेत 'पर्यायवितिष्यपि 'महेत। नूनं वृहिणाविषु वैवतेषु पं तस्य स्फुति तथाविधेषुः ॥१३१॥ 'दोक्षासु तपसि वचसि "स्वपि तु पर्यायहक्म" सकलगुणरहीन । सस्मादमि जगतां स्वमेव नाथोऽसि बुषोचितपादसेव ॥१३गा वेष त्वयिकोऽपि तथापि विमुखचित्तो यदि "विदलितमदनविशिल ।
निन्यः स एव पूर्फ विवापि "विदशीममुपालभते न कोऽपि ।।१३३।। अनेक धर्म मानने पड़ते हैं और उनके मानने से जिनेन्द्र के द्वारा कहे हुए द्वैततत्व की ही सिद्धि होती हैअद्वैत की नहीं। अतः हे स्याद्वाद के आधार प्रभो। सर्वमत से रहित हाए केवल एकमत के समर्थक दृष्टान्त नहीं होते ॥ १२९ ॥
हे प्रभो ! द्वेष से कलुपित बुद्धिबाले लोग, जो पूर्व में मनुष्य होकर स्याद्वाददर्शन के नेता हुए हैं और जो श्रीशिव ( रुख ) से भी गुणोत्तम ( वीतरागता व सर्वज्ञता-आदि गुणों से सर्वश्रेष्ठ और पक्षान्तर में प्रशस्त तन्तुओं द्वारा गूंथी जाने से थेष्ठ ) हैं आपके ऐसे मौक्तिक ( मुक्तिश्री की प्राप्ति के सिद्धान्त व पक्षान्तर में मोती-समूह) को छोड़ देते हैं, जो कि जड़ज ( जड़ाय-जातं, अर्थात्-अशानियों के उद्धार के लिए उत्पन्न हुआ और पक्षान्तर में उलयोरभेदः, अर्थात्-इलेषालद्धार में और ल एक समझे जाते हैं। अतः जलज-जल से उत्पन्न हुआ ) है।
भावार्थ-जिस प्रकार मलिन बुद्धिवाले अज्ञानी पुरुष जल से उत्पन्न हुए बहुमूल्य मोती-समूहको, जो कि गुणोत्तम ( प्रशस्त तन्तुओं द्वारा गुम्फित होने से उत्तम ) है व श्रेष्ठनायक मणिवाला है, छोड़ देते हैं उसी प्रकार द्वेष से कलुषित बुद्धिवाले पुरुष भी आपके मौक्तिक ( मुक्ति-संबंधी सिद्धान्त ), जो कि जड़ज हैं, अर्थात्-सांसारिक ताप नष्ट करने से शीतल हैं, अथवा अज्ञानियों के उद्धार के लिए उत्पन्न हुए हैं, छोड़ देते
हे पूज्य ! जिसे अनुक्रम से होनेवाले बहुत आतों को मान्यता सह्य नहीं है, निश्चय ही अवताररूप ब्रह्मा-आदि देवताओं के सामने वह अपना सिर फोड़ता है। अर्थात्-उसे अनुक्रम से उत्पन्न हुए बहु संख्यावाले ब्रह्मा-आदि देवताओं के लिए भी अपना मस्तक नहीं झुकाना चाहिए ॥ १३१ ।। हे समस्त गुणों में परिपूर्ण व विद्वानों की योग्य चरण सेवावाले प्रभो! निश्चय से आपके चारित्र, तपश्चर्या व वचनों में जो एकवाक्यता (पूर्वापर विरोध-शून्यता) पाई जाती है, मतः मैं जानता हूँ कि तुम्हीं तीनलोक के स्वामी हो॥ १३२ । हे काम के वाणों को चूर-चूर करनेवाले प्रभो! तथापि यदि कोई तुमसे विमुख चित्तवाला है तो
१. अयं जिनः पूर्व नरः । २. सव। ३. रुद्रादपि । *. 'रहन्ति' इति मु. व ख० । टिप्पण्यां रह त्यागे त्यजन्ति ।
४, २४ चौबीस तीर्यङ्कर । ५. अनुक्रमेणोत्पनेषु। ६. हे पूजागत । ७. मस्तकं । ८. बहुषु हरिहरादिपु । ९. चारित्रेषु। १०-११. त्वयि विषये निश्चयेन चारित्रादीनामैक्यं वर्तते । १२. परिपूर्ण । १३. जानामि । १४. हे चूर्णीकृतमदनवाण ! १५, धुके अन्धे सति इनं सूर्य न फोऽपि निन्दसि । है, व्यङ्गयार्थ-मोतीमाला नायकर्माण (मध्यमणि) से युक्त होती है व सूत्रों-सन्तुओं-मे गुम्फित होती है, यह बात भी यहां झलकती है-सम्पादक