Book Title: Yashstilak Champoo Uttara Khand
Author(s): Somdevsuri, Sundarlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 454
________________ ४५८ यशस्तिलकचम्पूकाव्ये बिसेनन्सप्रभावेऽस्मिन्प्रकृत्या पिसवच्चले। सत्तेजसि स्थिरे सिद्धेन कि सिद्ध जगत त्रये ॥१७॥ अनिमनस्के मनोहसे पहंसे सर्वत: स्पिरे । बोमहंसोऽसिलालोक्य सरोहंसः प्रजायते ।।१९८॥ याप्पस्मिन्मनःक्षेत्रे क्रियां तांत समारपत् 1 कंचिक्यते भान तथाप्यत्र न विभ्रमेत् ॥१६९|| "विपक्षे क्लेशराशीनां यस्मालंघ विधिर्मतः। तस्मान्न विस्मयेतास्मिन्परं ब्रह्मसमाथितः ॥१७॥ प्रभावश्चर्यविनानवतासंगमादयः । योगोन्मेषाद्धवम्तोऽपि नामी तत्त्वविदों मुझे ॥१७॥ भूमौ जन्मेति रत्नानां यथा सर्वत्र मोबः । तपात्ममिति ध्यानं सर्वप्राणिनि नोजवंत् ।। १७२।। तस्य कालं वदन्त्यन्तमु स मुनयः परम् । अपरिपन्धमानं हि तत्पर बुर्धरं मनः ।।१७३।। - - . ' होती है। यह तेरहवें गुणस्थान में केवलोभगवान् के प्रकट होता है। इस एकत्ववितर्क शुक्लध्यानरूपी प्रचण्ड अग्नि द्वारा धातियाकर्मरूपी ईंधन भस्मसात् होकर केवलज्ञान प्रकट होता है ।। १६६ ।। अनन्तसामथ्यशाली यह मन, जो कि पारदसरीखा स्वभाव से चञ्चल है, जब उस तेज ( अध्यात्मज्ञान व पक्षान्तर में अग्नि ) में स्थिर निश्चल व सिद्ध (ध्यान-मग्न व पक्षान्तर में शुद्ध, मारित, मूच्छित व वद-आदि) हो जाता है तब तीन लोक में उस योगो को क्या सिद्ध ( प्राप्त) नहीं होता? अपितु समस्त स्वर्गश्री व मुक्तिश्री प्राप्त हो जाती है ।। १६७ ।। यदि यह मनरूपो हंस अपने मनोव्यापार से रहित हो जाय, अर्थात्-अपनी चञ्चलता छोड़ देवे और आत्माख्यो हंस परमात्मा में लीन होकर सर्वथा स्थिर (आत्मस्थ ) हो जाय तो ज्ञानरूपो हं। समर शेप मरका का हंस हो जाता है। अर्थात्-मन निश्चल होने के साथ यदि आत्मा आत्मामें स्थिर हो जाय तो समस्त विश्व को प्रत्यक्ष जाननेवाला केवलज्ञान प्रकट होता है ।। १६८ । इस मनरूपी स्थान में जोवादि ध्येय बस्तु में चित्त की एकाग्रतारूप प्रवृत्ति को करता हुआ मुनि हेय ( त्याज्य ) व उपादेय ( ग्राह्य) वस्तु को यथावत् जान लेता है तथापि उसे इसमें विभ्रम ( तत्व ओर अतत्व में समान बुद्धि या अज्ञान) नहीं करना चाहिए । अर्थात्-हेय वस्तु को उपादेय व उपादेय को हेय नहीं समझना चाहिए। अभिप्राय यह है कि विभ्रम ( अज्ञान ) होने से धर्मध्यान नष्ट होकर आतं-रौद्रध्यान हो जाता है ।। १६९ ॥ क्योंकि हमने दुःख-समूह को देनेवाले शत्रुभूत ध्यान ( आतं व रोद्र ध्यान ) में ऊपर कही हुई विभ्रम लक्षणवाली विधि नहीं कही है । अतः परब्रह्म परमात्माका आश्रय लेनेवाले धर्मध्यानी को इस विषय में ( ध्यान से उत्पन्न होनेवाली ऋद्धि-आदि में ) आश्चर्य नहीं करना चाहिए ।। १७० ।। ध्यान के प्रकाट होने से प्रभाव, ऐश्वर्य, विशिष्टज्ञान और देवों का समागम-आदि प्राप्त हो जाने पर भी तत्वज्ञानी इनसे प्रमुदित ( हर्षित ) नहीं होते; क्योंकि उनका लक्ष्य ध्यानरूपी अग्नि द्वारा कर्मरूपी ईंधन को भस्म करके केवलज्ञान प्राप्ति का होता है ।। १७१ ॥ ध्यान की दुर्लभता व माहात्म्य-आदि जिसप्रकार पृथिवी से रत्नों की उत्पत्ति होती है तथापि सर्वत्र गम उत्पन्न नहीं होते उसीप्रकार ध्यान भो आत्मा से उत्पन्न होता है तथापि वह समस्त प्राणियों की आत्माओं से उत्पन्न नहीं होता ॥ १७२ ।। ऋषि धर्मध्यान व शुक्लध्यान का उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त तक कहते है; क्योंकि निश्चय से इससे अधिक १. पारदपच्चले। २, अग्नी ज्ञाने च । ३. मनोव्यापाररहित । 'निर्लागार मनोहसे हंसे सर्वथा स्थिरे । बोधहंसः प्रवर्तन विश्वायसरोवरे ।।१॥-प्रबोधसार । *. 'लोक'च. ४. गनिः। ". जामाति-हेपममादेयं वस्तु यथावत् पश्येदित्वयः। .हेयमुपादेयतया उपादेयं हेयतमा न पश्येत । ७. शत्रभुत ध्याने एप विभ्रमलक्षणों विपिन कषितः । ८. अन्तर्मुहुर्तकासात्परं ।

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