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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये जय लक्ष्मीकरकमलपिताङ्ग सारस्वतरसमटमाटघरना। जय बोषमध्यसिहाखिलाय मुक्तिश्रीरमोरतिकृताचं ॥११६॥ ममवमरमौलि मन्दिरतटान्तराजपवनखनक्षत्रकान्त । वियुधस्त्रीनेत्रामविबोध भकरमजपनु स्ववनिरोध ॥११७।। बोपत्रयवितितविभपतन्त्र नागपेक्षा वापर पषतः प्रबोषमभन्जनत्य गुरुरस्ति कोऽपि किमिहारुणस्य ।।११८॥ निजबीजालान्मलिनापि महति घीः यदि परमामभव भजति ।
युक्तः घनकाश्मा भवति हेम१२ कि कोऽपि तत्र विश्वेत नाम ।।११९॥ हे लक्ष्मी के करकमलों द्वारा पूजित शरीरवाले, हे सारस्वत रसरूपी नट के अभिनय के लिए रङ्गमञ्च-सरीखे प्रभो ! आपको जय हो। हे केवलज्ञान द्वारा समस्त पदार्थों के ज्ञाता और है मुक्तिलक्ष्मोरूमी कामिनी के साथ रतिविलास करने से कृतार्थ हुए प्रभो! आपको जय हो ।। ११६ ॥ नमस्कार करते हुए देवों के मुकुटरूपी सुमेरु-तट के प्रान्तभाग में जिनके चरण-नखरूपी चन्द्र सुशोभित हो रहे हैं, जो देवियों के नेत्ररूपी कमलों को विकसित करते हैं, जो कामदेव के धनुष का गर्व रोकने वाले हैं, ऐसे हे प्रभो! आप जयवन्त हो ॥ ११७ ।। जैसे इस लोक में प्राणि-जनों का जागरण करनेवाले मूर्य का क्या कोई गुरु है ? वैसे हो मति, श्रुत व अवधिज्ञान के द्वारा जानने योग्य बस्तु-समूह को जाननेवाले हे प्रभो ! तुम्हें भी किसी गुम को अपेक्षा नहीं हुई ।। ११८ ।
जैमिनीय मत-समीक्षा हे संसार- रहित प्रभो ! अज्ञान-आदि दोषों से मलिन बुद्धि भी आपमें ज्ञान-ध्यानादि उपादान कारणों को सामर्थ्य से उस प्रकार अत्यन्त शुद्धि ( केवलज्ञान ) प्राप्त करती है जिस प्रकार मलिन सुवर्णपाषाण उपाय ( अग्निपुट-पाकादि ) से शुद्ध सुवर्ण हो जाता है, इसमें क्या कोई भी ( जैमिनीय आदि दार्शनिक) विवाद कर सकता है ? ॥ ११९॥
भावार्थ-जैनदर्शनकार स्वामी समन्तभद्राचार्य ने भी कहा है, कि किसी पुरुष-विशेष ( तीर्थङ्करआदि ) में अज्ञान-आदि दोषों व उनके कारणभूत ज्ञानावरण-आदि कर्मों की समूलतल ( जड़ से ) हानि उसको नष्ट करनेवाले आत्मिक कारणों (ज्ञान-ध्यानादि उपायों) द्वारा उस प्रकार होती है जिस प्रकार सुवर्ण-पाषाण का वाह्य व माभ्यन्तर मल उमको नष्ट करनेवाली कारणसामग्री ( अग्नि-पुटपाकादि उपाय ) द्वारा नष्ट हो जाता है।
हे प्रभो! जैसे परिमाण (आकार ) आकाश में अपनो वृद्धि की चरमसीमा ( महापरिमाणपन ) प्राप्त करता है वैसे ही वुद्धि भो किसी महापुरुष ( तीर्थङ्कर-आदि ) में अपने विकास की चरमसीमा ( केवल
१. केवलजान I *. 'मन्दरतटान्त' ०। २. चन्द्रः शोभमान एव चन्द्रः । ३. विकासकर्ता। ४. गर्व । ५. 'परिच्छे.
यवस्तु-तन्त्र शास्त्र कुलं तन्वं तन्वं सिवौषधिकिया। तन्त्र मखं वलं तवं तन्ध पवनसाधनं टिक ख. 'सन्त्र संप्रदायः' इति दि०व०। ६. गुरौ। ७. जागरणं । ८. सूर्यस्य । ९. जानध्यानादिसामात । १०.धीः। ११.त्याय विषये। १२. जैमिनीयो निरस्तः । *. तथा च स्वामी समन्तभद्राचार्य:दोषावरणयाहानिः निःशेषास्टपतिशायनात् । क्वचिद्यथा स्वहेतुभ्योहिरन्तर्मलक्षयः ॥ १ ॥
देवाममस्तोत्र से संकलित-सम्पादक