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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये
aftafai जिनचरणयोः सर्वसत्वेषु मंत्री सर्वातिथ्ये मम विभवपीव्रं द्धिरमात्मतत्त्वं । द्विषु प्रणयपरता चित्त परायें भूपादेतद् भवति भगवन्धाय यावत्त्वदीयम् ॥ १०३ ॥ प्राप्तविधिस्तव पवरम्बुजपूजनेन मध्याह्नसंनिधिरियं मुनिमाननेन । सायंतनोऽपि समय सारिका धर्मेषु 'धर्मनिरतात्मसु धर्महेती धर्मादाप्तमहिमास्तु नृपोऽनुकूलः 1
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नित्यं जिनेन्द्रचरणानपुण्यधन्याः कामं प्रजाश्च परमां श्रियमाप्नुवन्तु ॥ १०५ ॥ आलस्याद्वपुषो हृषीकहर व्यक्षिपतो बात्मनश्चापल्यात्ममसो मते अंडतया मान्धेन वाक्सौष्ठवं ।
( इति पूजाफलम् )
म करिव संस्तवेषु समभूवेध प्रमादः स मे मिथ्या स्तान्नतु देवताः प्रणयिनां तुष्यन्ति भक्त्या यतः ॥ १०६ ॥ देवपूजा निर्माण मुनीननुपचयं च । यो भुञ्जीत गृहस्थः सन्स भूजीत परं तमः 1180911
पासकाने मपमानविधिर्नामि पत्रिशः कल्पः ।
नमरमर मोलमालिनांशुनिक रगगनेऽस्मिन् । 'अरुणायतेऽङ्घ्रियुगलं यस्य स जीयाज्जिनो वेवः ॥ १०८ ॥
पूजा - फल
हे भगवन् ! जब तक आपका केवलज्ञानरूप प्रकाश मेरी आत्मा में प्रकट हो तब तक जिन भगवान् के चरणों में मेरो भक्ति हो, समस्त प्राणियों में मेरा मैत्रीभाव ( दुःख उत्पन्न न होने की अभिलाषा ) हो । मेरी धन-वितरण को बुद्धि समस्त अतिथियों के सत्कार में संलग्न होवे, मेरी बुद्धि अध्यात्मतत्व में लीन रहे, मेरो विद्वानों के प्रति प्रेम-तत्परता हो तथा मेरी चित्तवृत्ति परोपकार करने में प्रवृत्त हो ॥ १०३ ॥ हे देव ! मेरी प्रातःकालीन विधि आपके चरणकमलों की पूजा से सम्पन्न हो, मध्याह्न वेला का समागम साधुओं के सन्मान में व्यतीत हो एवं मेरी सायंकालीन वेला भी सदा आपके चारित्र कथन की कामना में व्यतीत हो ॥१०४॥ | धर्म के आचरण से प्रभावशाली हुआ राजा धर्मं ( उत्तम क्षमा- आदि), धार्मिक जन (भुति आदि ) धर्म साधनों (चैत्यालय, मुनि, शास्त्र व संघ ) के विषय में सदा अनुकूल रहे और सदा जिनेन्द्र के चरणकमलों की पूजा से प्राप्त हुए पुण्य द्वारा पुष्यशालिनी हुई जनता यथेष्ट उत्कृष्ट लक्ष्मी प्राप्त करे ॥ १०५ ॥ हे देव ! शरीर के आलस्य से या इन्द्रियों का दूसरी जगह उपयोग के चले जाने से आत्मा की दूसरे कार्य में व्याकुलता के कारण, मानसिक चञ्चलता से, बुद्धि की जड़ता से और वचनों के स्पष्ट उच्चारण की मन्दता के कारण तुम्हारी स्तुतियों में मुझ से जो कुछ प्रमाद हुआ है, वह मिथ्या हो । क्योंकि निस्सन्देह देवता तो अनुरक्तों की भक्ति से सन्तुष्ट होते हैं ।। १०६ ।।
जो मानव गृहस्थ होकर के भी देवपूजा किये विना और साधुओं की सेवा किये बिना भोजन करता है, वह महापाप खाता है ।। १०७ ।।
इस प्रकार उपासकाध्ययन में अभिषेक व पूजन विधि नामका छत्तीसवां कल्प समाप्त हुआ । ऐसे वे जिनेन्द्र देव जयवन्त हों, जिनके चरण-युगल नमस्कार करते हुए देवों के मुकुटों के समूह में खचित रत्न-किरणों के समूहरूपी आकाश में सूर्य- सरीखे आचरण करते हैं ।। १०८ ।। जिनके चरणों के नखों का किरण समूह, इन्द्राणी के श्रोत्रों पर स्थित हुई कल्पवृक्ष को ईषद्विकसित मञ्जरी - जैसा मनोज्ञ है, वे जिनेन्द्र
१. धार्मिके । २. चैत्यालय मुनिशास्त्र संघेषु । ३ प ४ सूर्यवदाचरति ।