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अष्टम आश्वासः
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परिमाणमिवातिशयन वियति मतिरुच्चनरि गवतामुपैति । तद्विश्ववेदिनिन्वा द्विजस्य विश्राम्यत्ति चित्ते देव कस्य ॥१२०॥ कपिलो यदि वाञ्छति' वित्तिमचिति' 'सुरगुरुगी म्फेबवेश पतति । चितन्यं बाह्यग्राह्यरहितमुपयोगि कस्य पद तत्र विवित ॥१२॥ भूपवन बनानलतत्वकेषु १२षिषणो निगणाति विभागमेषु ।
न पुनविधि ५ तद्विपरीतधर्मधाम्न "ब्रोति तत्तस्य ? कर्म ॥१२२।। ज्ञान ) प्राप्त करती है, इसलिए मोमांसक ने जो सर्वज्ञ की आलोचना की है, वह किसी के भो चित्त में नहीं उत्तरती।। १२०॥
सांख्यदर्शन-मीमांसा हे विख्यात प्रभो! जब सांख्य बुद्धि को जड़रूप प्रकृति का धर्म ( गुण ) मानता है तब यह चतुर्भूत ( पृथिवी, जल, अग्नि व वायु) के स्थापक चार्वाक के वचनों ( सिद्धान्तों ) में आ गिरता है। अर्थात्-जिस प्रकार चार्वाक ( नास्तिक ) बुद्धि को पृथिवी, जल, अग्नि व वायु इन चार मूतों से उत्पन्न हुई ( देहात्मिका, देह-कार्य व देह-गुण } मानता है उसी प्रकार सांस्य भी बुद्धि को जहरूप प्रकृति से उत्पन्न हुई मानता है, इसलिए ॐ चाक-मस की मानत होता है। उस
दीवारण के लिए यदि सांख्य यह कहता है कि हम तो स्वतन्त्र पुरुषतत्त्व ( आत्मपदार्थ ) मानते हैं, जो कि चैतन्यस्वरूप को लिए हुए है, तब उक्त दोप केसे आ सकता है। उसका उक्त कथन भी विरुद्ध है, क्योंकि जब सांख्य का चैतन्य वाह्य घट-पटादि पदार्थों के ज्ञान से शून्य है, तब हे प्रभो ! आप उसे उस चैतन्य के विषय में कहिए कि उसका वह अर्थक्रिया-हीन चेतन्य किसके उपयोगी होगा? अर्थात-जब वह वाह्य पदार्थों के जाननेरूप अर्थ-क्रिया नहीं करता तव अर्थक्रिया-शून्य होने से वह खर-विषाण ( गधे के सोंग ) की तरह असत् सिद्ध होता है ॥ १२१ ।।
भावार्थ-सांख्यदर्शनकार ने निम्नप्रकार पच्चीस तत्त्व माने हैं। १. प्रकृति, २. महान् ( बुद्धि ), ३. अहंकार (अभिमानवृत्ति-युक्त अन्तःकरण ), अहंकारसे उत्पन्न होनेवाले १६ गण ( पाँच तन्मात्रा-शब्द, स्पर्श, रूप, रस व गन्ध व ग्यारह इन्द्रियाँ ( पाँच ज्ञानेन्द्रिय-चक्षुरादि-पांच कर्मेन्द्रिय-वाक्, पाणि, पाद, पायु, उपस्थ ) व मन एवं पांच तन्मात्राओं से उत्पन्न होनेवाले पाँचभूत (पृथिवी आदि ) अर्थात्-शब्द से आकाश, रूप से तेज, गन्ध से पृथिवी, रस से जल व स्पर्ग से वायु सलान्न होती है। इस प्रकार चौबीस पदार्थ हए
और पच्चीसो पुरुषतत्त्व ( जीवात्मा), जो कि अनादि, सूक्ष्म, चेतन, सवंगत ( व्यापक ), निर्गुण, कूटस्थनित्य, दृष्टा, भोका ब क्षेत्रवित है। विशेष यह कि सांख्यदर्शन को मीमांसा पूर्व में ( आ० ५ पू०१५२-१५३ श्लोक ६२ व उसके बाद का मद्य तथा पृ० १५७-१५८ श्लोक नं० ८५-८९) कर चुके हैं, वहाँ से जान लेनी चाहिये।
१. जिन-निन्दा । २. सांख्यः । ३. ज्ञान, बुद्धि । ४, अचेतने प्रधान इति यावत् । ५ बावकिय वनषु चतुर्भूतस्थापकेषु
पतति । ६. बीत चतम तदपि विरुद्धं तदपि प्रोग्यमतपंटनं । ७. कार्यकारक । ८. कथय । ९. चैतन्यविषये । १०. हे विख्यात । ११. जल । १२. बृहस्पतिः । १३. कथयति । १४. विभेदनं ज्ञानं। १५. आत्मनि ज्ञानं न कथयति । १६. तस्मादचेतने जीवस्थापनाद्विपरीनधर्म। १७ इदं घिपणास्य पागं वर्तते । *, तथा प्रोक्तम-'प्रकृतेमहांस्ततोऽहंकारस्तस्मादृगणश्च पोशकः । तस्मादपि पोजशफाल्पघ्चम्यः पञ्चभूतानि ।।
{मा० का २२ ) सर्वदर्शन संग्रह पृ. ३१९ से गंकलित-सम्पादक