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यशस्तिलकचम्पूका
इभारातिपरिवृढोपवाह्यमानासनावसानलग्न रहन कर सरपल्लवित वियत्यावपाभोगम्, मनुजविभिजभुजङ्गेन्द्र न्ववन्द्यमानपावारविवयुग लम्
मद्भाविलक्ष्मीलतिकावनस्य प्रवर्धनाषमित 'वारिपुरं । जिनं चतुभिः स्वपयामि कुम्भं नभःसवो धेनुपघोषराः ॥ ८९ ॥
लक्ष्मीपते समुल्लस जनानन्यः परं पल्लव धर्माराम फलैः प्रकामसुभगस्त्वं भव्ययो भव । "धाषीश विमुच संप्रति मुह कर्मधर्मक्लमं त्रैलोक्यप्रभवावहै जिनपते गंत्योदर्कः स्नापनात् ॥९०॥ शुद्धं विशुद्धयोषस्य जिनेशस्योल सेवक" करोम्य भूयस्नानमुत्तरोत्तरसंपवे ॥९१॥
"अमृतकृत कणिकेऽस्मिन्निजाडूबीजे "कलाब से क्रमले संस्थाप्य पूजयेयं त्रिभुवनवरदं जिनं विधिना ।। ९२ ।।
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अनन्यसामान्यसमवसरणसभासौन
जिन्होंने सिंह- स्वामी द्वारा धार्यमाण आसन (सिहासन) के अन्त में जड़े हुए रत्नों को किरणों के प्रसार से आकाश रूपी विस्तृत वृक्ष को पल्लवित किया है एवं अनोखी समवसरणसभा में स्थित हुए चक्रवर्ती, इन्द्र व घरणेन्द्रों के समूह द्वारा जिनके दोनो चरणकमल वंदनीय किये जा रहे हैं ।
जिनमें मेरी भविष्य में होनेवाली लक्ष्मीरूपी लता के वन को वृद्धिंगत करनेवाला जलपूर ग्रहण किया गया है ( भरा गया है ) व जिनकी कान्ति देवों की कामधेनु के स्तनों सरीखी शुभ्र है, ऐसे चार कलशों से पूर्वोक्त जिनेन्द्रप्रभु का अभिषेक करता हूँ* ॥ ८९ ॥
जिनेन्द्रप्रभु के तीन लोक को आनन्ददायक गन्धोदकों के अभिषेचन से हे लक्ष्मीरूपी कलालता ! तुम मनुष्यों के आनन्दरूपी पल्लवों से उल्लास को प्राप्त हो जाओ । हे धर्मरूपी उद्यान ! तुम फलों से अत्यन्त मनोज्ञ होकर भव्य प्राणियों द्वारा सेवनीय हो जाओ और हे ज्ञानवान् आत्मा ! तुम अब दुष्कर्मरूपी सन्ताप को ग्लानि को चार बार छोड़ो ।। २० ।।
में केवलज्ञानी जिनेन्द्रप्रभु का शुद्ध व श्रेष्ठ जलों से अभिषेक करके सर्वोत्कृष्ट लक्ष्मी को प्राप्ति के लिए यज्ञान्तस्नान ( अभिषेक करने के पश्चात् स्नान करके अष्टप्रकारी पूजा की जाती है, यह कम है) करता हूँ ।। २१ ।।
में, सोलह पांखुड़ीवाले, जिन ( पांखुड़ियों) में अकार आदि सोलह स्वर ( अ, आ, इ, ई, उ, क, ऋ, ऋ, लृ, लृ, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अः ) लिखकर चिन्तवन किये गए हैं, कमल पर, जिसकी कणिका पकार ( प व्यञ्जन ) से निर्मित हुई हैं, अर्थात् — जिसकी कणिका में पकार लिखकर चिन्तवन किया गया है, जिसके ( कणिका के ) मध्य अपना नाम स्थापित किया गया है, अर्थात् जिसमें विशुद्ध आत्मद्रव्य या
प्रभु या हूँ को स्थापित करके चिन्तवन किया गया है, तीन लोक को अभिलषित वस्तु देनेवाले जिनेन्द्रप्रभु को विधिपूर्वक स्थापित करके उनकी पूजा करता हूँ ।
भावार्थ - शास्त्रकारों ने धर्मध्यान के चार भेद निर्दिष्ट किये हैं। पिंडस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातील ।
१. सिंहः । २ गम । ३. उपात्तः । ४. कामधेनुः । ५. हे त्वगुल्लासं प्राप । ६. सह । ७. हे आत्मन् ! । ८. मेघजालैः सड़ागादानीतैः' टि० ख०, 'उत्तरोदक: मेघोदकः हंसोदक' इति पं० । ९. यज्ञान्तस्नानं अभिषेके कृते सति पुनः स्नात्वा पश्चादष्टप्रकारी पूजा क्रियते इति क्रमः । १०-११-१२. 'पकारेण (पवर्ण) कणिका क्रियतं तन्मध्ये स्वकीयं नाम निक्षिप्यते षोडशदलेषु अकारादयः स्वराः लिक्ष्यन्ते' टि० ० ० ० । 'अमूलं पवर्णः कला अकारादयः पोखया' इति पं० । * रूपक व उपमालंकारः ।