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अष्टम आश्वासः
भक्तिभरविनतोरगनरसुरासुरेश्वरविरकिरीटकोटिकल्पतरूपल्लवायमानचरणयुगलम्. अमृताधानाङ्गनाफरविकीर्यमाणमन्चारममेरुपारिजातसंतानकयनप्रसूनस्पन्दमानमकरन्दस्वाबोन्ममिलनमसालिकुलप्रसापोत्सालित' निलिम्पाकप्ति'च्यापारिगलम, अम्बरधरकुमारहेलास्फालितवणवल्लकोपणमानकमृबङ्गशलकाहलत्रिमिलतालझल्लरोभेरो भम्भाप्रभृत्य नवधि धन शुधिर सलाय नवाघनादनियक्तिनिखिलविष्टपाधिपोपासनावसरम, अनेकामर विकिरकुलकोणकिशालयायोकानोफुहोल्लसत्प्रसवपरागपुनहतप्तफल दिवपाल हृदयरागप्रसरम्, अखिल भुवनेश्वर्यलाञ्छनासपत्रत्रय शिखण्डमण्डनमणिमयूख रेखालिस्यमान 'मखमुखरखेचरीशालललतिलपत्रम, अनवरतयक्षविक्षिप्यमाणोभयपक्षचामरपरम्पराशुजालपसितविनेयजनमनःप्रासावचरित्रम्, अशेषप्रकाशितपदार्याप्तिशायिशारीरप्रभापरिवेषमुषित परिवत्समास्तारx. मतितिमिरनिकरम्, अमवधिवस्तुविस्तारात्मसाक्षात्कारासारबिस्फारितसरस्वतीतरङ्गसङ्गत पितसमस्तसस्वसरोजाकरम्,
नश्याम
नन्द्यावर्तक, स्वस्तिक, फल, पुष्प, अक्षत, जल और कुश-समूह से तथा सराव पुटों ( सकोरों ) से जिनेन्द्रप्रभु को अवतारित करता हूँ ।। ८८ ||
जिनके चरणयुगल भक्ति के भार से नम्रीभूत हुए घरणेन्द्र, चक्रवर्ती, इन्द्र व असुरेन्द्रों के मस्तकों पर धारण किये हुए मुकुटों के अग्रभाग पर कल्पवृक्ष के पल्लव-सरीखे आचरण करते हैं। जिन्होंने ऐसे मतवाले भ्रमर-समूह की गुञ्जायमान ध्वनि से उत्कण्ठित किये गए देवों के गले संगीत करने के व्यापार-युक्त किये हैं, जो कि देवियों के हस्तों द्वारा क्षेपण किये जा रहे मन्दार, नमेस, पारिजात व सन्सानक कल्पवृक्षों के वनों के पुण्यों से प्रवाहित हो रहे एयरस का पान करते से मतवाले टोकर एकत्रित हो रहे थे। जि बद्याधरकुमारों द्वारा क्रीड़ापूर्वक बजाये जानेवाले बाँसुरी, वीणा, पणव ( ढोल या तबला), भेरी, नगाड़ा, मृदङ्ग, शङ्ख, बड़ा कोल, विविल (वाचविशेष), ताल ( मंजीरा), झांझ, मेरी व भम्भा ( हुडुक्का ), आदि एवं बेमर्याद घन ( तालादि ), शुषिर ( वंश-आदि ), तत ( वीणादि ), अवनद्ध ( मुरजादि ) को ध्वनि द्वारा समस्त विश्व के स्वामियों ( इन्द्र-आदि ) के लिए उपासना करने का अवसर सूचित किया है। जिन्होंने अनेक देवों व पक्षिसमूह द्वारा क्षेपण की हुई कोपलोंवालं अशोकवृक्षों की शोभायमान पुष्पधूलि से समस्त दिक्पालों के हृदयों का प्रेम-विस्तार द्वि-गुणित किया है। जिनके द्वारा स्तुति करने में बाचाल हई विद्यारियों के ललाट-तल की तिलकरचना, समस्त लोकों के ऐश्वर्य के चिह्नरूप सोन छत्रों के मस्तक पर अलंकृत हुई मणियों की किरणपक्ति द्वारा चित्रित की जा रही है। जिन्होंने शिष्यजनों के मनरूपी महल का चरित्र ( आचरण व पक्षान्तर में मार्ग ) निरन्तर यक्षजाति के देवों द्वारा दोनों वाजू दोरी जानेवाली चामरों की श्रेणी के किरण-समूह से शुभ्र किया है। जिन्होंने समस्त प्रकाशशील पदार्थों को अतिक्रमण करनेवालं अपने शारीरिक कान्ति के परिवेश { घेरा) द्वारा समवसरणसभा के सभासदों को बुद्धि का अज्ञानरूपी अन्धकार-समूह नष्ट किया है।
अनन्त पदार्थों के विस्तार को प्रत्यक्ष करनेवाले केवलज्ञानरूपी आसार ( जलवृष्टि ) से बढ़ी हुई सरस्वत्तोरूपी नदी को तरङ्गों के संसर्ग से जिन्होंने समस्त प्राणीरूपी कमल-समूह को अत्यन्त सन्तुष्ट किया है ।
१. उत्सुकीकृत । २. गीत । ३. 'हड्डुक्का' पं०, 'नफेरी' टि० छ। ४. तालादिकं । ५. वंशादि ।
६. वीणादि । ७. मुरजादि । ८. पक्षी। ९. नप। *. 'हृदयपरागपसरं क०। १०. मस्तक । ११. स्तुति । १२. ललार्ट। १३. 'समज्यापरिपगोष्ठी सभा समितिसंसद: । आस्थानी क्लीवमास्थानं स्त्रीनपंसवयोः सदः ।। टि०ख०, परिषत समवसरणसमा' इति पं०। १४. 'सभासदः सभास्वारः सम्याः सामानिकाश्च ते। टिस 'वृषाः' इति पं०।