Book Title: Yashstilak Champoo Uttara Khand
Author(s): Somdevsuri, Sundarlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये 'पायापूर्णान्कुम्भाकोणेषु सुपरलवप्रसूनाचान् । बुग्याम्वीमिव निर्भ प्रवालमुत्तोबणांवचतुरः ॥७॥
[ति,पुराकर्म] यस्य स्थान त्रिभुवनशिरशैक्षराने निसर्गात्तस्यामपंक्षितिभूति' भवेन्नादभुतं मानपोर्ट । लोकानन्दामृलजलनिर्वारि तरसुधात्वं पत्ते सबनसमये तत्र चित्रीमते कः ॥७७॥ तोर्पोदकर्मणिसुवर्णधटोपनीतः पीठे पवित्रवधि प्रतिकल्पिसाघे । "लक्ष्मों भुतागमन बोजविवर्भगर्भ संस्थापयामि भुवमाधिपति जिनेन्द्रम् ॥७८॥ (इति स्थापना) सोऽयं जिनः सुरगिरिननु १०पोठमेतबेतानि दुग्धजलधैः सलिलानि साक्षात् । इन्द्रस्त्वहं तव १ 'सवप्रतिकर्मयोगापूर्णा सतः कथमियं न महोत्सवभोः ॥७९॥ (दति सन्निधापनम् )
पुराकर्म
रत्न-सहित जलों ( जल से भरे हुए कलश-आदि में पंचरत्न क्षेपण किये जाते हैं-मुद्रार्पण ) से व दर्भाग्नि के प्रज्वालन से गृहीत शुद्धिवाली जिनेन्द्र को अभिषेक-भूमि में दुग्ध से धरणेन्द्रों को सन्तृप्त करके ब्रह्मस्थान ( सिंहासन ) की पूर्व-आदि दश दिशाओं को दूर्वा, अक्षत, पुष्प व डाभों से गुम्फित करते हैं ।। ७५ ॥ मैं वेदी के चारों कोनों में आम्रादि के पल्लवों से और पुष्पों से पूजित व जल से भरे हुए चार घटों को स्थापित करता हूँ, जो कि मूंगों और मातियों की मालाओं से युक्त होने के कारण क्षीर समुद्र-सरीखे हैं ।। ७६ ।।
[इस प्रकार पुराकर्म विधि समाप्त हुई ]
स्थापना जिस जिनेन्द्र का निवासस्थान स्वभाव से ही तीन लोक के मस्तक ( सर्वार्थ सिद्धि विमान ) के ऊपर मकूट-सरीखी सिद्ध शिला के ऊपर है, उसके अभिषेक का सिंहासन सुमेरुपर्वत पर है, इसमें आश्चर्य नहीं है। इसीतरह हे जिनेन्द्र ! तुम्हारे अभिषेक के समय लोक के आनन्दरूपी क्षीरसमुद्र का यह जल यदि अमृत-पना प्राप्त करता है तो इसमें कौन आश्चर्य करता है ?॥७७॥
में ऐसे सिंहासन पर तीन लोक के स्वामी जिनेन्द्रदेव को स्थापित करता हूँ, जो कि मणि-जड़ित सुवर्ण कलशों से लाये हुए पवित्र जलों में प्रक्षालित किया गया है व जिसके लिए पूर्व में अर्घ-प्रदान किया गया है एवं जिसका मध्यभाग लक्ष्मी व सरस्वतो के बीजों द्वारा श्रीं ह्रीं का गुम्फन किया गया है, अर्थात्-जिसके मध्य में अक्षतों से घों ही लिखे गये हैं ।। ७८ ॥
[ इस प्रकार स्थापना-विधि समाप्त हुई ]
संनिधापन
यह जिनविम्ब ही निस्सन्देह वही समवसरण में विराजमान साक्षात् जिनेन्द्रदेव है व यह सिंहासन हो सुमेह है एवं कलशों में भरा हुआ यह पवित्र जलपूर ही साक्षात् क्षीर सागर का जलपूर है तथा तुम्हारे अभिषेकरूपी अलङ्कार की शोभा के संबंध से इन्द्र का रूप धारक में हो साक्षात् इन्द्र हूँ सब इस अभिषेक १. जल। २. 'मेरी' स०, 'सुरीले' पं०। ३. सिंहासन । ४. जल प्रशालित 1 ५, पोटस्थापि पूर्व अर्थः प्रदीयते ।
६. 'श्रीं। ७. ह्रीं। ८. अक्षतः धीकारी लिख्यते न तु गन्धेन । ९. 'गुम्फित, मिधित।' इति दि० ख०, 'लक्ष्मीश्रुतागमनबीजः श्रीसरस्वतीजीज: 'थीं, ह्री' इति पं० । १०. पीठमेव मेकः। ११. 'सवः अभिपेकः' इति पं०1