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तथाहि-
यशस्तिलक चम्पूकाव्ये
येषां ध्येयाशयकुवलयानन्दचन्द्रोदयानां ओोषाम्भोधिः प्रमदसलिलमति नात्मावकाशे । लाप्येतामखिलभुवनेश्वर्यलक्ष्मी निरीहं चेतस्तेषामयमपचितो धेयसे वोऽस्तु धूपः ।।६५ ।। *से चिले वित करणेष्वन्तरात्मस्थितेषु " स्रोतः स्यूते बहिरनिलतो व्याप्तिशून्ये व पुंसि । पेषां क्योतिः किमपि परमानन्दसंदर्भ गर्भ जन्मच्छेदि प्रभवति' फस्तेषु कुर्मः सपर्याम् ||६६|| वाग्देवतावर बायपासकानामागामि सफल विद्याषिव पुण्यपुञ्जः । लक्ष्मी कटाक्ष मधुपागमन कहेतुः पुष्पाञ्जलिर्भवतु तच्चरणार्चनेन ॥६७॥ इपासकाध्ययने समयसमाचारविधिनांम पश्वत्रिंशत्तमः कल्पः ।
( इत्यर्यशक्तिः )
इदानीं ये १२ कृतप्रतिमापरिग्रहास्तान्प्रति स्नापमार्चन स्तव जपध्यान थुतदेवताराधनविधीन् षट् प्रवाहरिष्यामः ।
श्री वाग्वनितनिवासं पुण्यार्जन क्षेत्रमुपासकानाम् । स्वर्गापवर्गाग मलैकहेतुं जिनाभिषकाध्यमाषयामि ॥६८॥ भावामृतेन मनसि प्रतिलभ्धशुद्धिः ""पुण्यामृतेन च तनो नितरां पवित्रः ।
श्री विधिवस्तुविभूषितायां वेद्य जिनस्य सवनं विधिवत्तनोमि ||६९ ॥
ऐसे उन आचार्यों की पूजा में अर्पण किया हुआ धूप आप लोगों के कल्याण के लिए हो, जो मध्यजनरूपी कुवलय ( नीलकमल बार में पृतिदीपा ) को आदत वा निशित करने के लिए चन्द्रमा के उदय सरीखे हैं, जिनका ज्ञानरूपों समुद्र हर्षरूपी जल राशि से आत्मापरी स्थान में नहीं समाता एवं समस्त लोक को ऐश्वर्यं लक्ष्मी प्राप्त करके भी जिनका चित्त निस्पृह ( लालसा शून्य ) है || ६५|| हम ऐसे उन आचार्यो की फलों से पूजा करते हैं, जिनकी चित्तवृत्ति, जब चैतन्यस्वरूप आत्मा में लीन हो जाता है और जिनकी समस्त इन्द्रियाँ जब अन्तरात्मा में लीन हो जाती हैं एवं इन्द्रियों के प्रवाह वाली आत्मा जब अविच्छिनता से समस्त बाह्य प्रपंचों से रहिन हो जाती है तब जिन्हें ऐसी कोई अनिर्वचनीय ज्ञानज्योति उत्पन्न होती है, जिसके मध्य में उत्कृष्ट आनन्द की सृष्टि है, और जो जन्म-परम्परा के छेदन करने में समर्थ होती है ।। ६६ ।। ऐसी यह पुष्पाञ्जलि उस आचार्य के चरणों की पूजा करने से ऐसी मालूम पड़ती है मानों - यह सरस्वती देवी का वरदान हो है और मानों - यह भविष्य में प्राप्त होनेवाले पूजा के फल के लिए पुण्य-समूह ही है, यात्रकों की लक्ष्मी के कटाक्षरूपी भ्रमरों के आगमन का कारण हो || ६७ ||
इस प्रकार उपासकाध्ययन में पूजा विधि का बतलानेवाला पैतीसर्वा कल्प पूर्ण हुआ । अब हम जिनकी पूजा की प्रतिज्ञा करनेवाले श्रावकों को उद्देश्य करके अभिषेक, पूजन, स्तुति, जप, ध्यान व श्रुतदेवता की आराधना इन छह विधियों को कहेंगे
अभिषेक विधि
में ऐसे जिनेन्द्रदेव के अभिषेक के गृह ( जिनमन्दिर ) में प्रविष्ट होता हूँ, लक्ष्मी देवी का गृह है, श्रुतदेवता का निवास स्थान है च देवपूजादि करनेवाले श्रावकों के पुण्यार्जन का खेल है तथा स्वर्ग व मोक्षप्राप्ति का मुख्य कारण है ॥ ६८ ॥ में विशुद्ध परिणामरूपी जल से अपनी मानसिक शुद्धि प्राप्त करके और पवित्र जल
१. ध्येयायः भव्य मनः। २. हर्ष । ३. पूजायां । ४. आत्मनि चैतन्यरूपे । ५-७, स्रोतः प्रवाहेन्द्रियोः अविच्छिनतमा बाह्यरहिते पुंसि । ८. रचना । ९. उत्पद्यते ज्योतिः । १०. पूजा । ११. कटाक्षाः एव भ्रमराः । १२. जिनबिम्ब । १३. पवित्रजलेन । १४. 'सव: अभिषेक:' इति पञ्जिकाकारः ।