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अष्टम आश्वासः
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येषामन्सस्तवमृतरसास्वानमन्वप्रचार क्षेत्रामोशे विगतनिखिलारम्भसंभोगमावः । प्रामोऽक्षाणामुनुषित' इवाभाति योगीश्वराणां कुर्मस्तेषां कलमास: पूजन निर्ममाणाम् ॥ ६१ ।। वहारा मेऽप्युपरतषियः महिला प्रशान्तयेगा पमित पविता सहावामा तारः ! आस्मात्मीयानुगमविगमावृत्तयः गुरुयोधास्तेषां पुष्पंश्चरणकमलान्ययेयं शिवाय ।। ६२ ॥ येषामङ्ग मलयजरसः संगमः कभर्वा स्त्रीनिम्बोकः पितृवनधिताभस्मभिर्वा समानः । मित्रे शत्राकपि च विषये निस्तारङ्गी १०ऽनुपास्तेषां पूनाव्यतिकरविषाबस्तु भूय हविर्यः १५ ॥६॥ योगाभोगाचरणचतुरे होणकरवध स्वान्से वान्तोद्धरणसबिघे ज्योतियन्मेष भानि ।
संमोदेतामृतभुत इव क्षेत्रनायोऽन्तचर्यषां तेषु क्रमपरिचयात्स्याछिये यः प्रचोपः ॥६४॥
विशुद्ध आत्मारूपी आकाश में धर्मध्यानरूपो सूर्य प्रकर्ष का प्राप्त हो जाने पर जिनका हृदय कमल हर्ष से निश्चलता प्राप्त करता है, अर्थात्-आनन्द से प्रफुल्लित हो जाता है और तत्वदर्शन व तत्वज्ञान से जिनके अज्ञानरूपी अन्धकार-समूह को स्थिति नष्ट हो चुकी है, उनके चरणों की चन्दन से पूजा करता हूँ ।। ६० ।।
हम ममत्व-रहित ऐसे आचार्यों की अक्षतों ( धान्य तगडलों) से पूजा करते हैं, जिनकी आत्माज, अध्यात्मरूपी अमृतरस के पान करने से बाह्य अनारमीय पदार्थों में मन्द गतिवाली हो जाने पर जिनका इन्द्रियसमूह, जिससे समस्त आरम्भ व काम-क्रोड़ा नष्ट हो चुकी है, ऊजड़ हुमा-सरीखा शोभायमान हो रहा है ।। ६१ ॥ मैं ऐसे आचार्यों के चरणकमलों को मोक्ष प्राप्ति के लिए पुष्पों से पूजा करता है, समस्त संकल्पों ( कामनाओं) के शान्त हो जाने से जो शरीररूपी परिग्रह में भी विरक्त बुद्धिवाले हैं, मोक्षस्थानरूपी अमृत को प्राप्ति हो जाने से जिनकी क्षुधा व तृषा-आदि को पौड़ा का सहन गर्व-रहित है और आत्मा में भी अपनेपन की भावना की उत्पत्ति के नष्ट हो जाने से जिनकी वृत्तियां शुद्ध बुद्धि वाली हो मई हैं६२ ।। ऐसे उन आचार्यों की पूजा की उत्सव विधि में अर्पण किया हुआ नैवेद्य तुम्हारी विभूति के लिए हो, जिन्हें अपने शरीर पर लगाया गया मलयागिर चन्दन का लेप अथवा कीचड़ों का लेप एक सरीखा है, अर्थात्-क्रम से हर्ष व विपाद के लिए नहीं है व जिन्हें स्त्रियों के बिलास या श्मशान भूमि को चिंता की राख समान है एवं मित्र व शत्रु के दृष्टिगोचर होने पर जिनका आशय कल्लोल-रहित ( राग-द्वेष-शून्य ) है, अर्थात् --जो मित्र से अनुराग व शत्रु से द्वेष नहीं करते ॥ ६३ ॥
जिनका मन जब ऐसा विशुद्ध हो जाता है, जो कि विस्तृत पोगों ( ध्यानां ) के पालन करने में प्रयोग है और कामदेव का गर्व विदोर्ण करनेवाला है एवं अज्ञानरूपी अन्धकार को न करने में तत्पर है। क्योंकि उसमें ज्ञानरूपी ज्योति उत्पन्न हो चुकी है, तब जिनकी अन्तरात्मा अमृतरस से भरी हुई-सी या चन्द्र-सी विशेष आनन्दित होती है, उनके चरणों की पूजा के लिए अर्पित किया गया दोप तुम्हारी थी-बुद्धि के लिए हो ॥६॥
१. क्षेत्राधीशे । २. उस इव । ३. 'असतः' टि० ख० 'सदकास्तण्डुलाः' इति पं०। ४. गमावरहितानां । ५. आरामः
परिग्रहः । *. 'दहारम्भे' इति ग०। ६. 'मिः पोडाजवोत्कण्टा भङ्गप्रकाशयोचिषु सुत्पिपासादिपीड़ा' टि० ख०, पञ्जिकाकारस्तु 'ऊर्मयः क्षुत्पिपासादयः' इत्याह । ७. गर्व । ८. विलासः । ९. इन्द्रियगोचरं । १०. निष्कल्लोला । ११. 'संगतिः' इति दि० ख०, पञ्जिकायां तु 'अनपरा आशयः' इति प्रौन। १२. नछ। १३. विदारित। १४. समीपे । १५. प्रादुर्भाव । १६.हत ।