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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये 'समवसरणवासान्मुक्तिलम्मीविलरमा सलसमयनाथा वाक्यविद्यासनाथान् । भनिगल विनाशोस्रोगयोगप्रकाशा निरुपमगुणभाषान्संस्तुवेऽहं क्रियावान् ॥५६॥ भवदुःखानलशान्ति धर्मामृतवर्षजनितजनशारितः१० । शिवशास्त्रिवशान्तिः शान्तिकारः१२ स्ताग्जिनःशान्तिः ॥५७ ॥ (इति शान्तितिः) मनोमात्रोधितायापि यः पुण्याय न बेटते । हताशप्प कथं तस्य कृतार्थाः स्युमनोरथाः ।। ५८ ॥ येषां तृष्णातिभिरभिरस्त स्वलोकावलोकात्पारेऽचारे प्रशमजलधेः सङ्गवाः परस्मिन । शव्याप्तिप्रसरविधु चिरावृत्तिप्रचारस्तेषाम विषिषु भवताद्वारिपूरः श्रिये षः ।। ५९ ।।
राषद प्रणिषितरणावन्तरारमाम्बरेऽस्मिन्नास्ते येव हरयतमलं भोवनिस्पन्सवत्ति।
तत्त्वालोकायगमगलित°ध्यान्तपन्धस्थितीमा मिष्टि सेवामहमुपनमे ३ पाइयोश्चन्दनेन ॥ ६ ॥ और देवों के श्रेणो विमानों में स्थित हैं, जिनका निवास स्वर्ग, ज्योतिषी देव, कुलाचल, पाताललोक, गुफाएं व गिरनार-आदि पवंत-तलों में है और जो उन नगर-स्वामियों के मुकुटों पर जड़े हुए रत्नरूपी दीपकों से पूजों गई है ।। ५५ ।।
पञ्चगुरु-भक्ति निया में उद्यत हुआ में, समवसरण में स्थित हुए अर्हन्तों की, मुक्तिरूपी लक्ष्मी के साथ क्रीडा करनेवाले सिद्धा की, समस्त आगम के स्वामी आचार्यों को व व्याकरण-आदि विद्याओं से सहित उपाध्यायों की तथा ऐसे सर्वसाधुओं की स्तुति करता हूँ, जिनका ध्यानरूप प्रकाश संसाररूपी शृङ्खला को छिन्न-भिन्न करने के उद्योगवाला है एवं जिनमें अनोखे सम्बग्दर्शन-आदि गुण वर्तमान हैं ।। ५६ ।।
शान्ति-भक्ति ऐसे श्रीशान्तिनाथ भगवान् शान्ति । विघ्न-हरण ) करनेवाले हों, जो सांसारिक दुःखरूपी अग्नि को शान्त करनेवाले ( बुझाने वाले ) हैं, जिन्होंने धर्मरूपी अमृत की वृष्टि द्वारा जनता में शान्ति ( शैत्य ) उत्पन्न को है ब जो माक्ष-सुख में बाधक कर्मों ( ज्ञानावरण-आदि) के आस्रव को शान्ति (क्षय ) करनेवाले हैं ।। ५७॥ जो ऐसे पुण्य-संचय के लिए प्रयत्न नहीं करता, जिसकी प्राप्ति में केवल मन की विशुद्धि मात्र ही योग्य है, उम हताश ( दोन ) मानव के मनोरथ कैसे सफल हो सकते हैं ? ।। ५८ ॥
आचार्य-भक्ति उन आचार्यों को पूजाविधि में अपित किया गया जल-समूह तुम लोगों को लक्ष्मी की प्राप्ति के लिए होवे, जिनका चित्तवृत्ति-प्रचार (आत्मा, इन्द्रिय और मन को केन्द्रित करने में कारणीभूत व्यापार...ध्यानादि) तस्व-समह के यथार्थ प्रकाश से तुष्णारूपी अन्धकार का नष्ट करनेवाला है और प्रशमलापी समद्र के उस पार (तट) च इस पार में वर्तमान है, अर्थात्-प्रशमरूपी समुद्र के मध्य में ही वर्तमान है एवं जो परिग्रह रूपी समद्र से उत्तीर्ण ( पार ) हो चुका है तथा जो वाद्य पदार्थों में प्रवृत्ति के प्रसार से रहित है ।। ५१ ।। १. अर्हतः । २. सिद्धान्। ३. परिपूर्ण । ४. सुरीन् । ५. उपाध्यायान् । ६. गृङ्खला। साधुनु ।
८. क्रियाराहातः। ९. विष्यापनं विध्याति-विधातीत्यर्थः । १०. शैत्यं। ११. अम। १२. विघ्नहरः । १३.५४. येषां चित्तवृत्तिपचार: प्रजमजलधेः पार गरकूल, अवारे अवाफूले च वर्तते, प्रशमसमुद्रमध्ये एव वर्तते इत्यर्थः । रानवार्धेः परिग्रहसमुनस्य पर पारं वर्तते तस्मादुत्तीर्ण इत्यर्थः । १५. प्रविश्लप च विकले विधुरं मुधियो विदुः । १६. आत्मन्द्रिवमानसां बरास नहेतुन्यापारः । १७. समूहः । १८. प्रकर्षे प्राप्त सति । १९, ध्यानसूर्य, प्रणिधिः प्रार्थने पर अवषानेऽपि । २०. ज्वान्तस्याज्ञानस्य प्रबंधः समूहः तस्य स्पितिः । २१. पूर्जा । २२. परिकल्पयामि ।