Book Title: Yashstilak Champoo Uttara Khand
Author(s): Somdevsuri, Sundarlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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ससम आश्वासः
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दर्शनस्परसंकल्प'संसर्प त्यसभोजिता: । हिंसनाकाबनप्रायाः 'प्राशप्रत्यूहकारकाः ॥ ५४ ॥ अतिप्रसङ्गहानाय” तपसः परिदये । अन्तरायाः स्मृता सर्बितबीजविनिक्रियाः ॥ ५५ ॥ महिलातरक्षार्थ मूलवतविशुद्धये । निकायां यजपे तिमिहामुत्र व युःखवाम् ॥ ५६ ॥ आधिलेषु सर्वेषु पभावविहिलस्थितिः । गृहासमी समीहेत शारीरेऽवसरे स्वयम् ॥ ५७ ।। संधान पानकं धान्य पुष्पं मूल फलं बलम् । जीवयोनि म संग्राहां यच्च जोवपातम् ।। ५८॥ अमिध! "मिश्रमुस्सगि १२ "कालदेशवशाधयम् । वस्तु किचित्सरित्याज्यमपोहास्ति जिनागमे४॥ ५९ ।।
यवन्तः विरप्राय हेयं नालोनलादि तत् । अनन्तकायिकप्राय" "बल्लोकदाविक त्यजेत ॥१०॥ विषलं १ हिवाल प्राश्यं प्रापेणानवता गतम् । शिम्बयः२१ २सकलास्यास्याः साधिताः 'सफलाइच याः ।।६१॥
चम, हड्डो, कुत्ता, बिल्ल
भोजन के अन्तराय-गीला चमड़ा, हड्डी, मांस, रक्त, पोप-आदि का देखना, रमः स्वला स्त्री, शुष्क
लो व चाण्डाल-आदि का छु जाना, भोज्य पदार्थ में 'यह मांस की तरह है' इस प्रकार का बुरा संकल्प हो जाना, भोज्य पदार्थ में मक्खी वगैरह का गिरकर मर जाना, त्याग को हुई वस्तु को भक्षण कर लेना, मारने, काटने, रोने, चिल्लाने-यावि की आवाज सुनना, ये सब भोजन के अन्तराय ( विघ्न पैदा करनेवाले ) हैं । अर्थात्-उक्त अवस्थाओं में धार्मिक पुरुष को भोजन छोड़ देना चाहिए ।। ५४ ।। ये अन्तराय अतरूपी बीज की रक्षा करने के लिए वाड-सरीखे हैं, इनके पालने से अतिप्रसङ्ग दोष की निवृत्ति होती है,
और तपकी वृद्धि होती है, ऐसा आचार्यों ने माना है ।। ५५ ।। अहिंसानत को रक्षा के लिए, व मूलगुणों को विशुद्धि करने के लिए इस लोक व परलोक में दुःख देनेवाले रात्रि भोजन का त्याग कर देना चाहिए ।। ५६ ॥ गृहस्थ को चाहिए, कि जो अपने अधीन { गो, दासो व दास-आदि) हों, पहले उनको भोजन कराये पीछे स्वयं भोजन करे और शारीरिक अवसर ( भोजनादि ) में स्वयं यत्न करना चाहिए ।। ५७ ।। प्रसजोबों को राशिरूप अचार, पानक, धान्य, पुष्प, मूल, फल, पत्ता, जो कि जीवों की योनि । उत्पत्तिस्थान ) हैं, ग्रहण नहीं करना चाहिए ( भक्षण नहीं करना चाहिए ) तथा कोड़ों से खाई हुई घुनी वस्तु को भी उपयोग में नहीं लानी चाहिए ॥ ५८ ॥ आचार शास्त्र में कोई वस्तु ( जीव-योनि होने से ) अकेली त्याज्य कही है, कोई वस्तु किसी के साथ संयुक्त ( मिल जाने ) से त्याज्य हो जाती है । कोई पदार्थ निरपवाद होने से त्याज्य होता है, अर्थात्कोई वस्तु सर्वदा त्याज्य होती है। कोई वस्तु अमुक देश ( स्थान ) के आश्रय हो जाने से त्याज्य हो जाती है। कोई अमुक काल ( चन्द्रग्रहण व वर्षाकाल-आदि) का आश्रय पाने से त्याज्य होती है एवं कोई पदार्थ अमुक दशा ( अवस्था) का आश्रय हो जाने से त्याज्य होता है। परन्तु ये बातें पिण्ड बुद्धि-आदि शास्त्रों से विस्तार पूर्वक जानने के लिए शक्य हैं ।। ५९ ॥
.. अहिंसा की रक्षार्थ दूसरे आवश्यक कर्तव्य-जिसके माध्य बहुत से छिद्र हों, ऐसी कमल-इंडी-आदि शाकें नहीं खानी चाहिए, क्योंकि उनमें आगन्तुक त्रसजीव होते हैं और जो अनंतकारा हैं, जैसे-लताएं, १. मांसरुधिरादीनां । २. श्व-रजःस्वलादीनाम् । ३. इदं मांसमिदं रुधिरं इत्याशयः। ४. मृतजीवजन्त्वादिभिरशुद्धता ।
५, प्रत्यास्मातान्नसेवनात् या परिहृताभ्यन्त्रहरणं । ६. भोजनविघ्नाः या भोजनान्तरामाः । ७. त्यागाय । ८. प्रतधीजवृत्तयः । ९, गोदासोदामादिषु । १०. फेवलं । ११. संमुफ्तं । १२. निरपवाद। १३. देशाश्रयं कालाययं गवस्थाश्रर्य च, एतच्च देशान्तरं पिण्डशुद्धधादिशास्त्रम्यो विस्तारण प्रतिपत्तव्यं । १४. किंचित् स्याज्यमपि वस्तु वर्तते । १५. अखण्डाः । १६. गुडूच्यादि । १७. सूरणादि । १८. दिखण्डं । १९. 'माचमुगादि' टिएस०, 'माषमुद्गत्रणकादिमान्य 401 २०.जीर्णतां प्राप्त द्विदलं, नवीन फवाचिचणकादि अनबहमपि प्राश्य । २१. फलयः । २२. अखण्डिता । २३. 'रदाः' ५०, 'राक्षा अपि' टिन, 'रद्धाः' दि० च। *. 'सकलाययाः' इति फ० |