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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये पुष्यः-प्रस्तुतमाचष्टे 1 भट्टिनी-भट्ट, सर्वमेतत्सचिवस्य कूटकपटचेष्टितम् । भट्टः-'भट्टिमी, किनु सल्वेतवेष्टितस्यायतनम् । भट्टिनी-प्रक्रान्तमाषिष्ट । भट्टः-किमत्र कार्यम् ।
भट्रिनी-कार्यमेतदेव । विद्या प्रकाशमेतस्मात्पुराप्रस्थाय निशि निभतं च प्रत्पावत्य अत्रैव महावकाशे मिजनिवासनिवेशे सुखेन वस्तष्यम् । "उत्तरत्राहं जानामि ।
भट्ट:-तथास्तु
ततोऽग्पदा तया *परनिकृतिपाया पाश्या स बुराधाराभिषङ्गः फडारपिङ्गः 'मुप्तजनसममे समानीत: 'समम्यसतु सावविहयमयं 4'' महीमूलं पियासुः पातालापासवुःखम्' इत्यमुष्याय सया पाया महावर्तव्य गर्तस्पोमिलता.REr7* * नाले गरे विलिनगुने तो हावपि' नुरातगईध्ये श्वभ्रमध्ये विनिपेततुः । अनुक आया । वह 'आज्ञा में संकल्प-विकल्प नहीं करना चाहिए' इस नैतिक सिद्धान्त को मानने वाला था । अतः वह प्रस्थान की सामग्री का संत्रय करने लगा।
उसी समय पातिव्रत्य धर्म से गृह को पवित्र करने वालो उसकी पत्नी पद्मा ने उससे पूछा-- 'स्वामी ! आप असमय में यह देशान्तर में गमन करने का प्रपञ्च क्यों कर रहे हैं ?
पुष्य ने उससे प्रस्तुत बात कह दी। पद्मा-स्वामी ! यह सब मन्त्री के कूटकपट को चेया ( व्यवहार ) है।' पुष्य-'प्रिये ! निस्सन्देह इस कूटकपट-पूर्ण व्यवहार का क्या कारण है ? पना ने प्रस्तुत पूर्व वृत्तान्त कह दिया। पुष्य-'इस अवसर पर मुझे क्या करना चाहिए?
पा-'कर्तव्य इतना ही है, कि आप दिन में समस्त जनों के सामने इस नगर से प्रस्थान कर दो और रात्रि में चुपत्राप लौटकर बड़ो जगह वाले अपने निवास स्थान ( गृह ) में सुखपूर्वक निवास करो। पूर्वोक्त वृत्तान्त के विषय का कर्तव्य में जानती है।'
पुष्य ने वैसा ही किया !
इसके उपरान्त एक दिन रात्रि की मध्यवेला में दूसरों को धोखा देने को पात्र-भूत यह पाय, दराचार से संबंध रखने वाले ( परस्त्री-लम्पट ) कडारपिङ्ग को लाई । उधर पद्मा ने यह सोचकर कि 'ये दोनों इसी जन्म में नरक में गमन करने के इच्छुक होकर नरक निवास का दुःख भोगें' ऐसा सोचकर उसने खुब गहरे गड्ढे के ऊपर विना बुनी खाट बिछा दो, जा कि कपड़े को चादर मात्र से सजी हुई थी, उसपर उन दोनों को बैठाया, जिससे वे दोनों (धाय और कडारपिन) महाव्यथा वाले उस नरक-कुण्ड-सरीखे गड्ढे में
१. कारणं 1 २. प्रस्तुते पूर्व वृत्तान्तं । ३. दिवसे । ४. स्थाने। ५. पूर्वोतवृत्तान्त । ६. तथैव कृतवान् । ७. माया।
८. दुराचारेण सह संबंधो यस्य । ९. सुप्तजनः रात्रिमयः । १०. धात्रीकद्धारपिछौ। ११. विस्तारेण गम्भीरस्य । १२. अणचुणीखदायां । *. 'अवानायां प्रच्छदमाषप्रमाणनाया खट्वायां' इति क० ख०, घ० च० । विमर्श:- 'अयं पाठः साधुरिति ममाभिप्रायः'-सम्पादकः । १३. धात्रीकडारपिङ्गी ।